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[ 87 गधर्व विवाह के समय ही नायक द्वारा उपमुक्त वर्तु लाकार स्तन वाली विरहिणी नायिका की प्रासो से नित्य प्रासू की पनारिया बहती रहती है ।। 'रयणाबली' के कुछ वियोग वर्णन प्रत्यन्त मार्मिक और प्रतीयमान अर्थ से युक्त है । एक स्थल द्रष्टव्य है -
दूनी विरह मे रस्त कृशकाय नायिका की दशा का चित्रण करती हुई नायक गे कहती है
यस्तलमारिय पेम्मय तह विन्हे तीइ इत्य तडफडिन । तबकुगुमम्म मूले प्रोपडिया मुद्दिया काहइ 1151919॥
'निर्दयप्रेमतरुण । तेरे विरह में वह वाला कितना छटपटाई थी, यह कुरवक वृक्ष के मूल में पड़ी हुई उनकी अंगूठी बताती है ।' विरहजन्य छटपटाहट के बीच प्रतिकश हो गयी नायिका के हाथ की अगूठी का गिर जाना स्वाभाविक ही है । यहा विरह के अतिरेक और तज्जन्य कृशता का कितना कलात्मक उल्लेख है। प्रिय के विरह मे गडी हुई लकडी की भाति बडी रहकर नायिका ने जैसे तैसे रात बितायी। उमको ससी चिन्ता करती है। रात तो बीती सुवह क्या होगा? प्रिय के अग्नि के सहश प्रस्फुरित विरह मे, पल्लव की शैय्या पर लेटी हुई तथा प्रासुग्रो से भीगे हुए स्तनो वाली नायिका, रात-दिन जलती रहती है ।३ कितना विरोधाभाम सा लगता है, पर बात तो सच ही है. विरहाग्नि एक ऐसी अग्नि है जो तन को जलाती है, पर उसकी लपटें नहीं दिखायी पडती । फिर कृत्रिम साधनो से उसे शमित ही कैसे किया जा सकता है, फिर भी विरहाग्नि मे जलती हुई नायिका की शान्ति के लिए उसकी शुभचिन्तक सखिया कुछ न कुछ उपचार तो करना ही चाहती है, यद्यपि ये उपचार भी विरहिणी के लिए शामक कम उत्तापक अधिक होते हैं । हेमचन्द्र की ऐसी ही एक नियोगिनी नायिका, नौकरानी को कृत्रिम उपचारो के करने से मना करती हुई कहती है
कि परिहण जलोल्लसि मयणे किं करसि कमलपडिवेस ।
कुणसि पचत्तरणिउणे पडिच्छिए हिप्रयसल्लपरिहदि ।।6124121।। "परिधान को क्यों जलाकर रही है, शैय्या पर कमल पुष्प क्यो डाल रही है, चाटुकारिता में निपुण प्रतिहारी तू हृदय की पीडा के आकर्षण (की वस्तुए ) जुटा रही है।" हेमचन्द्र के इस पद्य की तुलना विहारी सतसई के अनलिखित दोहे से की जा सकती है
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दे० ना0 मा0 4140139 वही 6118116 वही 6123120