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150 1 न निष्पन्नस्तेऽत्र निवडा ..." " ये च सत्यामपि प्रकृति प्रत्यय विभागेन मिट्टीसस्कृताभिवान कोशेषु न प्रसिद्धास्तेऽप्यत्र निवढा । " ये च मम्कृतानिवान कोणेपु अप्रसिद्धा अपि गौम्या लक्षणया वालवार वृधामणिप्रतिपादिलयाशक्त्या संभवन्ति "..." " ते डह न निवद्धा:।
"सिद्ध मगन्दानुशासन" प्रभृति व्याकरण ग्रन्थों से जो प्रकृति प्रत्यय आदि व्याकरणिक विभागो से सिद्ध नही होते ऐसे शब्द इम कोश मे रखे गये हैं। और जो व्याकरणिक प्रकृति-प्रत्यय आदि विभागो से सिद्ध होते हुए भी मस्कृत कोणो मे प्रसिद्ध नहीं हैं, उन्हे भी "देशी" मानकर निबद्ध कर लिया गया है । और जो सस्कृत कोमो मे अप्रसिद्ध होते हुए भी गौणी लक्षणा या अलकार चूडामणि पाटि ग्रन्यो मे प्रतिपादित शब्दशक्तियो के द्वारा भी दुर्वोव हैं, ऐसे शब्दो को वहा रत दिया गया है" - इसके बाद भरतादि शास्त्रकारों द्वारा निर्दिष्ट भिन्न-भिन्न प्रान्तीय भाषायो के शब्दो को कोई "देशी" न समझ ले इस बात की ओर संकेत करते हुए वे कहते है
•णाणा देम पसिद्धीइ भण्णमाणा अणन्त या हुन्ति ।
तम्हा अणाड पाइन पयट्टमाना विसेननो दे मी 112 देशविशेप (महाराष्ट्र विदर्भादि) मे वोली जाने वाली भापाएं अनेक हैं। अत. उनके शब्दो की सीमा भी नहीं है । इस कारण अनादिकाल से प्रचलित भाया के शब्दो को ही यहा देशी माना गया है।
इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र देशी शब्दो की कोटि मे प्रमुखतः चार प्रकार के शब्द रखते हैं (1) ऐसे शब्द जिन्हे व्याकरणगत नियमो से सिद्ध न किया जा सके । (2) ऐसे शब्द जो व्याकरण मे सिद्ध होते हुए भी सस्कृत के कोशो मे अप्रसिद्ध या अप्रचलित हो - जैसे - अमयणिग्गम.-अमृत निर्गम.- चन्द्रमा । यह शब्द चन्द्रमा के अर्थ मे संस्कृत के कोणो मे न प्राप्त होने के कारण "देशी" शब्दो को कोटि में रख दिया गया है। (3) ऐसे शब्द जो लक्षणा इत्यादि शब्द शक्तियों के आधार पर भी अपने अर्थ से न जोडे जा सकें। (4) ऐसे शब्द जो अनादि काल से स्वाभाविक रूप से प्रचलित चले आ रहे हो।
प्राचार्य हेमचन्द्र ने उपर्युक्त चार कोटि के शब्दो को "देशी" माना है। परन्तु इन आवारो पर उनके द्वारा संकलित किये गये शब्दो मे "वास्तविक रूप से 1. देगीनाममाला-पिगेल, द्वि0 10 11311, पृ0 3 2 वही, 114, पृ0 3