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है । यह व्युत्पत्ति न तो ध्वन्यात्मक विकास की दृष्टि से और न ही अर्थगत विकास की दृष्टि से उपयुक्त है । कटु से कडुवा शब्द वना है। अर्थ भी वही है पर कटु से 'खट्टा' शब्द किसी भी प्रकार व्युत्पन्न नही किया जा सकता। दोनो मे अर्थगत भेद भी है।
(51) खटिक्को - शौनिक (सज्ञापद) दे ना. मा. 2-70 - हिन्दी का जातिवाची 'खटिक' पद इसी से विकसित है । अन्तर केवल इतना है कि इसका अर्थ थोडा परिवर्तित हो गया है। कही-कही तो यह विधिक' का ही अर्थ देता है परन्तु कुछ स्थानो पर यह शाक सब्जी का व्यापार करने वाली जाति का बोधक है । द्रविड बल की तेलगु भाषा मे भी 'कटिक' (Katik) शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुया है । अत आर्येतर भाषा का शब्द होने से इसे 'देश्य' मान लेना उपयुक्त एव तर्कसगत होगा।
152) खड्डा ~ खानि. (सज्ञापद) दे ना मा - 2-66 -- मानक हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे 'खड्डा' 'खड्ड' 'गड्ढा' 'गढ़ा' आदि पद व्यवहृत होते हैं । ये सभी शब्द स्पष्ट ही 'खड्डा' के ही विविध विकसित रुप हैं । इन पदो को सस्कृत 'खात' 1 पद से व्युत्पन्न मानना उपयुक्त नहीं है।
(53) खली -- तिलपिण्डिका - (सज्ञापद)- दे ना. मा 2 66 - हिन्दी 'खली' अवधी तथा ब्रजभापा 'खरी, 'खली' के रूप मे ये शब्द ज्यो का त्यो विकसित है । संस्कृत मे भी 'खलि' शब्द इसी अर्थ मे आया है पर इसे सस्कृत का ही नहीं माना जा सकता । द्रविड कुल की कई भापायो मे यह शब्द मिलता है । तमिल कलनुकन्नड कढ (Kala) पुर्जी कली, कुयी-कलाइ । इन सभी भाषाओं में वर्गीय महाप्राण ध्वनिया नहीं है । अत इनका उच्चारण त०-खलनु, क०-खल, पर्जी - 'खली' कुयी'खलाई' भी किया जा सकता है । इन प्रमाणो के प्राचार पर निश्चय ही 'खली' शब्द प्रार्येतर भापायो की देन है । पर्जी मे तो यह उच्चारण भेद के साथ ज्यो का त्यो विद्यमान है।
(54) खाइमा ~ परिखा - (सज्ञापद) दे. ना मा - 2-73 - हिन्दी तथा उसकी प्राय ममी बोलियो मे प्रचलित 'खाई' या खाई पद इसी में विकसित होंगे । अयं भी एक ही है-'किले या खेत के चारो और सुरक्षा के लिए बना हुआ घेरा।'
1. मूयमा को, 4321 पर 'सडा' शन्द को सस्कृत 'वात' से व्युत्पन्न मानकर तद्भव
यो पोटि में रखा गया है।