________________
238 अपन्न श के अन्य अन्यो, मंदशरासक और पाडदोहा प्रादि की भी यही स्थिति है । इन अपत्रण से प्रभावित गुजराती, राजस्थानी और पजाबी मापायो मे आज भी 'न' के रणव विधान की प्रवृत्ति स्पष्ट ही देखी जा सकती है। मध्यदेश तथा प्राच्य देश की संस्कृत से प्रभावित भापानो मे यह प्रवृत्ति कम हो गयी है। सस्कृत के अनु. प्प ही हिन्दी आदि भापायो में ' का प्रारम्भिक प्रयोग लगभग नहीं ही होता । मव्यवर्ती स्थिति में भी यह प्राय. मूर्धन्यीकृत रूप में ही व्यवहृत होता है । केवल मान्त में यह सुरक्षित है । प्राजक्ल हिन्दी तथा उसकी वोलियो में इसे भी 'न' के
प में व्यवहृत किया जा रहा है। जैसे वीणा7वीना । देशीनाममाला मे 'रण' से प्रारम्भ होने वाले 169 शब्द हैं, जिनमे कुछ का मूल तो निश्चित रूप से म भा. श्रा के रास्ते प्रा. भा पा मे टूटा जा सकता है केवल अयं अलग होने के कारण हमचन्द्र ने इन्हें 'देश्य' कह दिया है। 'रण' से प्रारम्भ होने वाले देश्य शब्दो की सन्या भी पर्याप्त है।
आरम्भवर्ती स्थिति में 'ण' म मा प्रा. के 'रण' का अनुगमन है-अधिकतर मदो में यह कृत 'णत्व' विधान के रूप में ही व्यवहृत है'ण' - गाग्रो-गविष्टः (4-23), गीरगी-शिरोवगुण्ठनम् (4-31),
गिहुप्रा-कामिता (4-26) 1 मध्यवर्ती 'गा' और 'गण' म. भा पा का ही अनुगमन करते हैं-- -ग-अणप्पो-ग्वट ग (1-12), अणराहो-शिरसिचिपटिका (1-24),
अगिल्ल-प्रभातम (1-19) ! मध्यवर्ती 'पण' में प्रतिनिहित हैम ना प्रा एण-प्रमाण-विवाहबदानम् (1-7), कण्णासो-पर्यन्त' (2-14), मा भा या न्न-उष्णमो-समुन्नत [उन्नम (1-88), प्रोसण-त्रुटित प्रवसन्नम्
(1-56), अण्णटयो-तृप्न./अन्नचित् (1-19) । पा मा. प्रा -न्य-अण्णमय-पुनमुक्त [अन्यमयम् (1-28)।
"--न- उन्दग-उद्विग्न । उद्विग्न (1-123) । , "-- कणवाल-कुण्डलादिकर्णाभरण कर्णवाल (2-233
कनी-चञ्चु.कलि-(2-57) । " "जपोहणोराक्षम यज्ञहन (3-43)।
1. 'यात भिारद है-हिदी या 'यारा' या 'पानी' पद इसी से सबद है।