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उवमन्गो/उपमृ, उवउज्जो/उपकृतः । प्रणा अन् न-प्रा मा पा में अजन के पूर्व न को 'अ' हो जाता था और
स्वर से पूर्व अन् । म मा या मे यही अन् - अरण के रूप में प्रयुक्त होता दखा जा सकता है । दे ना मा की शब्दावली मे भी यह पूर्वसर्ग प्रयुक्त है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैंप्रणाअनघ, अगडो/अनृतः । अव्युत्पाद्य देश्य शब्दो मे भी
इमसी स्थिति अत्यन्त स्पष्ट हैप्रगन्धिनार-अन्छिन्न, अणरामप्रो-परति , अपरिक्को-क्षरणरहित ,
ग्राहप्परगप-प्रनष्ट, अणहारो-ऊंचा नीचा असमतल आदि । (ब) व्युत्पादक पर प्रत्यय
गाब्दिक नरचना में युवादक परप्रत्ययो का बहुत बडा हाथ होता है । प्रामा प्रा में उन्हें तद्धित और कृदन्त दो विभागों के अन्तर्गत बर्गीकृत किया गया
किती कृदन्त नामपद से, जिसके अन्तर्गत सना, सर्वनाम और विशेपण हैं अन्य नाम पद का निर्माण करने वाले प्रत्यय तद्धित कहलाते हैं और किसी, वातु मे सयुक्त होमरद का निर्माण करने वाले प्रत्यय कृदन्त कहलाते हैं । देशीनाममाला की देश्य मन्दिर गन्यता में इन दोनो प्रकार के प्रत्ययो का महत्वपूर्ण स्थान है । इसमे
का प्रत्यय तो नकृन के हैं, कुछ प्रार्येतर द्राविड श्रादि भाणो के और पुट विमुदाय में 'दमी' है । तदित और कृदन्त इन दो विभागो के अन्तर्गत इस कोश रेली में व्यवहार प्रत्यो का विवरण नीचे दिया जा रहा है। नचिनान्त सन्द
प्राप्ताशिल प्रयोगो को पाच वों में विभाजित किया जा सकता है --- (1) वापिर प्रत्यय
नानादी में स्वायं में कई प्रकार के प्रत्ययों का व्यवहार हा 12 मागि प्रत्ययों को देते हुए उनके भिन्न-भिन्न प्रदेशो की भापा से
का निदान भी ग्पष्ट हो जाता है ।
: ना ! - नाशा
यो में यह प्रत्यय पर्याप्त मात्रा में व्यवहृत है । यह अल्पार्थ है। दमहफामुग्रो इन्द्रमहवामुक , उत्तरगावर दिया।