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उत्तरणवरडिका (नाव), करिना।कारिका, कासिम कशिक,कोलियो।कौलिक जोइअो।ज्योतिष्कः, दलिअ । दलिक, पडिच्छिा । प्रति-इच्छिका,बीअयो।बीजकः, भट्टियो। भर्तृक इत्यादि। अड़ या इ
आ भा. प्रा. मे ट् स्वार्थवत् प्रयोग- यह विशुद्ध देशी प्रत्यय है । हेमचन्द्र 8141429 तथा तर्कवागीश 31216 मे इस प्रत्यय का विवरण देते हैं । अपभ्र श भाषा का यह अपना प्रत्यय माना गया है । अपभ्र श मे यह देश्य शब्दो के प्रयोगबाहुल्य के कारण ही प्राया होगा। लगभग सभी प्राकृत व्याकरणकारो ये इस प्रत्यय की स्थिति स्वीकार की है। रामतर्कवागीश ने स्वाथिक-इ-प्रत्यय को कोन्तली तथा -डी-प्रत्यय को पाचालिका की विशेषता बताया है। उत्तरी राजस्थान मे अाज भी-डी-प्रत्ययान्त शब्दो का वाहल्य है। हिन्दी मे लकडी, पगडी, झाडी, मराठी मे पारडू, करडू शेरडू तथा गुजराती मे भनडू, दियडू अादि प्रयोग इसी स्वार्थिक प्रत्यय से सवद्ध हैं ।
पुल्लिग मे प्रयुक्त होने पर यह प्रत्यय 'डा' (अतो स्त्रिया डा) तथा स्त्रीलिंग मे प्रयुक्त ही -डी- के रूप मे पाता है। परन्तु दे ना मा के शब्दो मे इन प्रत्ययो का प्रयोग इस नियम से मुक्त है ।
अडाडो बलात्कारः, करडा-लटू,करडो-याघ्र , घटिअघडा-गोष्ठी, झाड-लतागहन (हिन्दी-झाडी), डड-चीथडा, तडमडो क्षुभित , तडवडा एकवृक्ष, तल्लड-पलग, तिरिडो-तिमिरवृक्षः परडा एक साप, पुरोहड, वेडो-नाव (बडा) डी
पाराडी-विलपितम्, करयडी-स्थूलवस्त्र, करोडी-कीटिका, खडहडी-तरुमर्कट गत्ताडी-गायिका, गोडी-मजरी, धम्मोडी-मध्याह्नसमय, झडी-निरन्तरवृष्टि , डडी-चीथड़ा, तणवरडी-एकनाव, ततडी-दही की कढी, तोतडी-कढी, घाडी-फेंका हुअा, पखुडी-पत्ती, मउडी-जूट, मडी पिधानिका, रोडी इच्छा, तुरुडी-फोडा । कही-कही अड्+डी साथ-साथ भी पाये हैं-जैसे
छुरमड्डी-नापितः तिरिड्डी-उणवात , पड्डी-प्रथम-प्रसूता ।
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डकारमम्नी क्लि कौन्तली स्यात् 313139 ई डी बहुलात् पाउचालिका-313139