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[ 239 उपान्त में 'गण' ग्रीन 'ण' की स्थिति १ मा पा का ही अनुगमन करती है। -- पण-निरितटम् (1-10), पपगरणी-इन्द्राणी (1-58), अगहणो~
कापालिक (1.31) -ror- प्राणी-देवरभार्या (1-51), घणो-उर (1-105), नहुण्णी ज्येप्ठभायाँ
(7-41)। यह ध्यनिगम की उपस्थिति -
प्रा भा.पा में 'न्ह' व्यजन ध्वनिग्राम को सत्ता अलग ही मानी जा रही है । अधिकार मापा बैज्ञानिक इमे सयुपत ध्वनि न मानकर एक स्वतत्र ध्वनिग्राम मानने के पक्ष मे है। इस स्वतत्र व्यजन ध्वनिनाम का मूलश्रोत म भा. प्रा मे खोजा जा सकता है । पहा यह 'ह' के रूप में विद्यमान है यद्यपि, यह अधिकाश स्थलो पर ध्वनि-परिवर्तनो के कारण है फिर भी इस ध्वनिग्राम की सत्ता अलग निर्धारित की जा सकती है । देशीनाममाला की शब्दावली मे इस व्यजन ध्वनिग्राम का पर्याप्त प्रयोग हुआ है । यह ध्वनिनाम मध्यवर्ती पीर उपान्त दो ही स्थितियो से प्राप्त होता है । कुछ उदाहरण इस प्रकार है
म भा या पह-उहिया-कृसरा (खिचडी) (1-88), गेण्हिन-उर मूत्रम् (2.94), जण्ह लघुपिठरम् (3-51), जोहली-नीची (3-40), तुण्हीसूकर (5-14), पिण्ही-क्षामा (6-46) सहाई-दूती (8-9) सिण्हा--हिमम् (8-53)।
ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं- जिनमे 'ह' व्यजन ध्वनिग्राम की स्थिति स्पष्ट दिखायी देती है। इनके अतिरिक्त कुछ शब्दो मे यह व्यजन ध्वनिग्राम प्रा भा पा प्य, स्न आदि व्यजन सयोगो के परिवर्तित रूपो से भी मिलता है, जैसेप्रा भा पा ष्णाह-उण्होदयभडो-भ्रमर उरणोदय भण्डः (1-20),
तुहिक्को-मृदुनिश्चल तूप्रणीक (4-15)। प्रा. भा पा स्न7ह-अण्हेअयो-भ्रान्त । प्रस्नेह (कः) (1-21), पण्हनो-स्तन
धारा प्रस्तुत (6-3)।
निष्कर्ष रूप मे यह कहा जा सकता है कि देशीनाममाला के अधिकांश 'देश्य' शब्दो मे मिलने वाला ‘ण्ह' पा भा श्रा के स्वतंत्र व्यजन ध्वनिग्राम "न्ह' के मूल में देखा जा सकता है। मध्यदेश की तथा प्राच्य भाषाम्रो भे यही 'हे', 'न्ह' के रूप में परिवर्तित होकर प्रचलित है । उत्तरपश्चिमी तथा दक्षिण पश्चिमी भाषाओं