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[ 215 रही थी। प्रातकाल में यह रद होकर आवश्यक नियम सी बन गयी । अपभ्र शकाल मे उनका 'प्रो' ग्रो. 'उ' दोनो ही रूप रहा । वस्तुत अपभ्र श मे 'उ' का ही बाहुन्य है उसमें प्रयुक्न 'यो' प्राकृतामास कहा जा सकता है। सधि और स्वर संयोग
मधि - देशोनाममाला के शब्दो मे स्वरो का सधिविधान बिल्कुल नही है। स्वर्ग में साक्षर कहे जाने वाले 'ऐ' और 'औ' की स्थिति किसी भी शब्द मे नहीं है । इनके स्थान पर सर्वन 'ए' और 'नो' का ही व्यवहार हुआ है । कुछ शब्दो मे 'ए' को 'प्रः' और 'प्रो' को 'पउ' रूप में भी व्यवहृत किया गया है । इसका विस्तृत विवेचन पीछे 'ऐ' और 'ग्री' का विवेचन करते समय किया जा चुका है। इस प्रकार देगीनाममाला के शब्दो मे स्वरो मे सघिविधान कही नही मिलता । दो स्वर नाथ नाथ पाकर भी 'पर सन्निकर्ष सहिता' के नियम से एक दूसरे से मिलकर एकाकार नहीं होते, बल्कि दोनो अपनी अलग-अलग स्थिति बनाये रखते हैं। दोनो का उच्चारण भी अलग अलग होता है। प्रकारातर से स्वरो की समीपस्थ यिनि के होने हा भी इनमे सधिकार्य नहीं होता। परे कोश मे इस कोटि के स्वर सोगो की भरमार है। स्वरो की यह समीपम्यता विवति कहलाती है। ऋग्वेद मे भी अन्न पद विवति के दो उदाहरण मिलते है-तित उ और प्रउगम् । इन दो शब्दो मे अपौर उ मे समीप रहते हुए भी 'गुणविधान' नही हुआ । लगभग सभी विद्वानो ने ऋग्वेद के इन दो शब्दो को किसी जन-भाषा की सम्पत्ति माना है। देशीनाममाला की शब्दावली मे इस प्रकार की त्रिवृतियो की भरमार है । ऐसे शब्दो की प्राचीनता ऋग्वेद काल तक जा पहु चती है ।
वैदिक छान्दस् भाषा के वाद सस्कृत मे समीपस्थ स्वरो का सधि-विधान अनिवार्य सा हो गया। लेकिन आगे विकसित होने वाली प्राकृतो मे, भाषा को स्वाभाविक विकास प्रक्रिया मे उच्चारण शैथिल्य और मुखसोकर्य के कारण सधिविधान शिथिल होता गया। प्राकृतो मे मध्यवर्ती क्षीण त्यजनो का प्राय लोप ही हो चला 11 जहा-जहा क्षीण व्यजन लुप्त होते वहा स्वरो की स्थिति बनी रह जाती थी। इस प्रक्रिया से एक ही शब्द मे दो-दो, तीन तीन और कहींकही चार-चार तक स्वर समीपस्थ होकर आने लगे और उनमे परस्पर सधि-प्रक्रिया का अभाव हो चला। व्यजनो के लोप और उनके स्थान पर आने वाले स्वरो के कारण, कही-कही तो शब्दो का अर्थ करने में कठिनाई होने लगी। सस्कृत के दो
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क ग च ज त द प य वा प्रायोलोप । प्रा प्र 212