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216 ] शब्द मृग और मृत प्राकृत में 'मय' के रूप में विकृत हो गये। ऐसे शब्दो के अर्थ निर्वागण मे तरह-तरह की कठिनाइयाँ बाने लगी। इतना ही नहीं एक ही शब्द में इतने स्वरो की भरमार होने लगी कि उमका उच्चारण भी कठिन होने लगा। स्वरो के उच्चारण मे, मुख मे श्वासवाय का गत्यवरोव नहीं होता। अत.एक स्वर के स्पष्ट उच्चारण के बाद ही दूसरा स्वर उच्चरित हो सकता है । दो, एक से स्वरो के उच्चारण में, वक्ता को पर्याप्त प्रयास करना पड़ता है । इसी प्रकार तीन तीन और चार स्वरोका उच्चारण तो और भी कठिन है। फिर भी प्राकृतो में इस कठिनाई के विपरीत स्वर मयोगो की भरमार होती गयी। प्राकृतो की इम विशेषता का पता हमें तत्कालीन लिखित ग्रन्यो से चलता है । उम युग मे बोलने दालो की प्रवृत्ति कैसी थी इसका पता लगा पाना, एक सर्वथा असम्भव कार्य है । मेरी दृष्टि में प्राकृतो का यह स्वर वाइल्य उनकी कृत्रिमता का द्योतक है, प्राकृतों के वोलने मे इतने अधिक स्वर संयोग मम्भव नहीं रहे होंगे।
देशीनाममाला की शब्दावली भी प्राकृतो के इसी मन्विच्छेद विधान का अनुसरण करती है । इसकी शब्दावली में भी विवृति प्रधान शब्दावली की भरमार है । प्राकृत भाषामो मे स्वरो की ममीपता की जितनी स्थितिया थी, सभी का निरूपण देशीनाममाला की शब्दावली में भी किया जा सकता है। प्राकृतों मे स्वर सयोग की तीन स्थितिया प्राप्त होती हैं - विवृति या सघि का प्रभाव
प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण मे स्पष्ट विधान किया है कि द्वत स्वर परे रहने पर दो स्वर्ग में प्रापम मे सवि नहीं होगी। 1 व्यंजनों का लोप हो जाने के बाद जो स्वर वच रहते हैं, वे उद्बत स्वर क्लाते हैं । देशीनाममाला के तद्भव शब्दो मे यह नियम देखा जा सकता है । जैन अडग्री (सस्कृतअष्टज.), अमनो (म अमृत ) अाउर (म प्रातुर), उअन (स ऋजुक) आदि । (2) य ध्रुति और व अति -
एक म्वर के उच्चारण से दूसरे स्वर के उच्चारण में जाती हुई श्वामवायु के निरलने से अकस्मात् कोई हल्की ध्वनि प्राकर श्रोता को सुनायी देने लगती है । यही अनि कहलानी है । धीरे-धीरे वदता और श्रोता के बीच व्यवहृत होते-होते यह एक, स्पष्ट वर्ण का रूप धारण कर लेती है। देशीनाममाला की दावली मे यह अति पौर व वर्गों के रूप में विद्यमान देखी जा सकती है । यह अति-विधान प्राय. रवृत्त स्वरों का स्थानी बनकर पाता है। 1 स्वरम्यो । ऐम 81118