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[ 229 यान्म्मवर्ती 'घ' देश्य शब्दों मे अपने शुद्ध रूप मे मिलता है। कुछ तद्भव पादो मे यह 'ग' का स्थानीय है। प्रा भा या 'घ'-घडी-गोप्ठी (2-105), घारो प्राकारः (2-108) प्रादि । मध्यवर्ती स्थिति
घ-घघो-गृहम् (2-105). घघारो-भ्रमणशील (2-106) ग्घ-घग्घर - जघनस्थवस्त्रभेदः (2-107), अग्घाडो-अपामार्ग (बहेडा का वृक्ष) (1-108)
प्रा भा. प्रा. प्राग्य प्रग्घाणो-तृप्त:पाघ्राणः (1-19), द्घ7ग्ध - उग्यायो-सघात (उद्घात' (1-126), उद्धृढ ट-पुसित
उद्घुष्टम् (1-99) 'घ' का उपान्त्य प्रयोग भी कम ही है। चवर्गीय व्यंजन ध्वनिग्राम
प्राचीन वैयाकरणो ने क वर्ग से लेकर पवर्ग तक के सभी व्यंजनों को स्पर्श सज्ञा दी थी --'कादमामावसाना स्पर्शाः" । स्पर्श वर्णों के उच्चारण मे श्वासवायु को मुख वियर मे प्रागमन अवरोध और स्फोटन इन तीन स्थितियो से गुजरना पडता है । प्राधुनिक भापा वैज्ञानिक सभी वर्गीय पचम वर्गों तथा चवर्गीय व्यजनो को स्पर्श व्यजन नही स्वीकार करते । वे वर्गीय पचम वर्णों को अनुनासिक तथा चवर्गीय व्यजनो को स्पर्श सघर्षी मानते हैं । चवर्गीय व्यजनो के उच्चारण मे श्वासवायु को सघर्प कर निकलना पडता है, अत इन्हे स्पर्श संघर्षी ध्वनियो की कोटि मे रखना ही उपयुक्त माना गया है । दे ना मा के शब्दो से स्पर्श सघर्षी ध्वनियो की प्रकृति निम्न प्रकार है
यह तालव्य, श्वास, अघोष, अल्पप्राण, निरनुनासिफ, स्पर्श सघर्षी ध्वनि है । दे ना मा मे 'च' से प्रारम्भ होने वाले कुल 116 शब्द हैं । देश्य शब्दो मे प्रारम्भवर्ती 'ज' प्रा. भा पा के ही 'च' का अनुगमन है-जैसे
चउक्क-चत्वरम (3-2), एकप्पा-त्वक् (3-7), चडुला-काचनशू खलालम्बित. रत्नतिलकम् (3-8) ।
प्रा भा. पा के 'क' और 'च्य' के स्थानीय प्रारम्भवर्ती 'च' का देश्य शब्दों मे सर्वथा प्रभाव है।
मध्यवर्ती और उपान्त रूप मे इस कोश के शब्दो का 'च' प्रा सा मा. के 'च' तथा म. भा प्रा के 'च्च' का अनुगमन करता है।