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206 ] स्वर ध्वनिग्रामो के प्रयोग की दृष्टि मे देशीनाममाला पूर्णरूपेण प्राकृत स्वरो का अनुमण करती है। प्राप्य स्वर ध्वनिग्रामो की प्रकृति -
अ-कण्ठस्थानीय, प्रवृत्तमुखी, मध्य तथा विवृत स्वर है। भापावैनानिक दृष्टि ने प्रधान स्वर ध्वनिग्राम 'घ' जिह्वान से उच्चरित होता है अतः यह अग्रस्वर है । नकृत के प्रसिद्ध वैय्याकरण पाणिनि ने '' को संवत स्वर बताया है (अ, अ सूत्र मे) । मम्वृत मे यह भले ही सवृत रहा हो । म भा पा मे यह विवृत हो गया और आज भी अवधी-भोजपुरी आदि वोलियो में विवृत ही है । दे. ना. मा. मे भी यह 'विवृत्त' स्वर ही है।
(2) जिन प्रकार प्राकृत तण अपभ्रश मे मध्यवर्ती तथा अन्त्य 'अ' विविध स्वरो और व्यजनो का स्थानीय होकर पाया है, उसी प्रकार इसका प्रयोग दे ना. मा की शब्दावली में भी हुआ है-जैसे अक्कदो ग्रानन्द (दे. 1- 15) उज्झसिन । अत्यमित (दे 1130) अच्छभल्लो L अक्षभत्ल (दे 1137) ।
प्रा-कण्ठस्थानीय, म्वल्पवृत्तमुखी शिथिल, पश्च तथा विवृत स्वर है । इसके उच्चारण में जिवापश्च के प्रयोग होने के साथ ही मुख अधिक खुलता है। देशीनाममाला की शब्दावली मे यह शब्द अधिकाशत. अपने मूल रूप मे ही व्यवहृत हुया है । कही कहीं यह 'अ' के रूप मे तथा कही 'ड' के रूप मे भी परिवर्तित मिलता है । ऐमा प्राय इन कोण के तद्भव शब्दो मे ही हुअा है, देश्य शब्दो मे इसकी अपनी मही विनि विद्यमान देखी जा सकती है।
इ-तालव्य, अवृत्तमन्त्री, अन तथा सवृत स्वर है । दे ना. मा की शब्दावली मे वह स्वर ध्वनिग्राम अपने शुद्ध और परिवर्तित दोनो ही रूपो में मिलता है। मुख रूप में इसकी प्राच, मत्र्य और अन्त्य तीनो ही स्थितियां मिलती हैं, विणेपकर 'दान' गब्दो में । परिवर्तित रूप मे कही यह ऐ८ ई (इरावो7 ऐरावत्-दै 1-60) नहीं अ 75 (मुक्विन (उत्गुष्क-दे 1142), कही ई 7 इ, (इण्हि । इदानी दे 1179 रही 37 3 (पिच्छी पुच्छ-दे 6-37) कही ऋ7 ई (भिगम्भृङ्गम् दे 6-104) प्रादि पो में मिलता है।
-उसमे और 'ड' मे उच्चारण की मात्रा भर का भेद है। उच्चारण मे दी होने के प्रनिरिक और सभी विगेपनाएं 'इ' जैसी ही हैं । दे ना मा के देश्य मल्दों में उनकी पात्र, मध्य और अन्त्य नीनों ही स्थितिया अपनी मूल विशेषतायो में संयुन है नद्भव शब्दो में यह कहीं 57 ई (मयली शालिन् दे. 8-11) तथा