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विरहताप का वर्णन तो अपने आप मे अत्यन्त कलात्मक है । अव वियोग की दोनो स्थितियो का विवरण अलग-अलग दे देना समीचीन होगा ।
मान
परकीयानुरक्त नायक से क्रुद्ध होकर स्वकीया मान करती है । उमकी सखी ममझाते हुए कहती है
पसिय सहि किमिह जुत्त चिर अवपुसिए पियम्मि अवच्छुरण । फायब्वमच्छिवडण अण्णोनरियावराहस्स ।। 1138139 ।।
"हे नसि । प्रसन्न होयो । चिरकाल से सयुक्त होकर रहने वाले प्रिय के प्रति तुम्हागे कोपपूर्ण भगिमा उचित नही है । अपराध की सीमा को अतिक्रान्त कर जाने पर मी (तुम्हें उपके अपराध की प्रोर से) पारा मू द लेना चाहिए ।" स्वकीया के मान का एक अन्य रमणीय वर्णन देखने योग्य है । पति अन्य मे प्रासक्त है इस वात को जानकर कृष्णमारमृग के समान सुन्दर पाखो वाली नायिका, ताम्बूल भाजन मे रखे हुए बीडे को उठाने के बहाने परामुखी हो जाती है ।' नायक के दुष्कर्मो से दु वी स्वकीया उमे फटकारते हुए पाहती है-दुष्ट । मूर्ख | उस कलहशीला के केशवन्ध मे पुष्पो का पामेल (चूडा) पहनाने वाले । श्रव मै तेरे योग्य नही ह 12 इस प्रकार मान के और भी कई प्रसग इस ग्रन्थ के पद्यो मे ढूढे जा सकते है। जितने भी मान के प्रसग हैं प्राय सभी स्वकीया से ही सम्बन्धित है । कुछ प्रसग दूतियो के माध्यम से मान के चित्रण के भी हैं, परन्तु उनका कोई विशिष्ट साहित्यिक महत्त्व नहीं है। प्रवास और विरहताप
___'रयणावली' के वियोग चित्रणो मे प्रवासजन्य विरहताप का वर्णन अत्यन्त विशद और व्यजनापूर्ण है । विरह के इन प्रसगो की छाया परवर्ती हिन्दी रीतिकाव्य पर स्पष्ट ही देखी जा सकती है। विरह के इन पद्यो मे ऊहाप्रो की भी कमी नही है । प्रवासजन्य विरहताप से सम्बद्ध कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं ।
वियोग की अवस्था मे विरहनाप से तापित नायिका का वर्णन करती हुई दूती नायक को बताती है कि वह स्त्री पान और कमल के पुष्पो पर कुपित हो जाती
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दे0 ना0 मा0 4112112 वही 5140147 वही 1137 38