________________
___136 ]
'प्राकृतेति सकल जगज्जन्तूना' व्याकरणादिभिरनाहित सस्कार सहजोवचन व्यापार. प्रकृति , नत्रभव सैव वा प्राकृतम् ।' प्रारिमवयणोसिद्ध देवाण अद्धमाग हा वाणी 'इत्यादिवचनाद् वा प्राक् पूर्व' कृत प्राक्कृत वालमहिलादि सुवोध सकलभापानिवन्धभूत वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूप तदैव च देशविशेपात् सस्कारणाच्च समासादित सस्कृताद्य त्तरविभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्ट तदनु सस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदित शब्दलक्षणेन सम्करणात् सस्कृत्तमुच्यते।'
'प्राकृत शब्द का अर्थ है, लोगो का व्याकरण आदि के संस्कारो से रहित स्वाभाविक वचन व्यापार, उससे उत्पन्न अथवा वही प्राकृत है ।' प्राक् कृत' शब्द से प्राकृत वना है और इसका अर्थ है पहले किया गया। द्वादणाङ्गग ग्रन्यो मे ग्यारह अग न थ पहले किये गये हैं और इन ग्यारह श्रग न यो की भाषा 'सार्पवचन' सूत्र अर्धमागवी कही गयी है जो बालक, महिला आदि को सुबोव, सहजगम्य है और जो सकल मापापो का मूल है। यह अर्वमागवी भाषा ही प्राकृत है। यही प्राकृत मेघ युक्त जल की तरह पहले एक रूपवाली होते हुए भी देशभेद से सस्कार करने से भिन्नता को प्राप्त करती हुई अर्थात् अर्द्ध मागधी प्राकृत से सस्कृत और अन्यान्य प्राकृत भापायो की उत्पत्ति हुई है। इसी कारण से मूल ग्रन्यकार रुद्रट ने प्राकृत का पहले और सस्कृत आदि का वाद मे निर्देश किया है। यही पाणिन्यादि के व्याकरण ग्रन्यो मे मस्कार पाने के कारण सम्कृत कहलाती है।'
'प्रसिद्ध प्राकृत काव्य 'गउडवहो' के रचयिता वाक्पतिराज ने भी प्राकृत को ही ममस्त मापात्रो का उद्गम स्थान माना है -
सयलामो इम वाया विसति एत्तोय ऐतिवायायो ।
ए ति समुद्द चिय णेंति सायरायोच्चिय जलाइ ।। 'जिस प्रकार जल ममुद्र मे प्रवेश करता है और समुद्र से ही वाष्प रूप से बाहर निकलता है, इसी तरह प्राकृत भाषा मे मब भाषाए प्रवेश करती हैं और इस प्राकृत भापा से ही मर भापाए निकलती हैं।' 'इम का यही आशय है कि 'प्राकृत'
आदि भाषा थी। सस्कृतादि भापात्रों का विकास इन शकृतो का परिष्कार करके किया गया न कि ये मस्कृत से स्वयं विकृत हुई 1 नवम् शती के प्रसिद्ध कवि राजशेखर भी अपनी बाल रामायण मे कहते हैं - ये यद्योनि किल सस्कृतस्य सुदशा जिह वामुयन्मोदते ।' यहा इन्होंने प्राकृत को ही मस्कृत की योनि बताया है। इन्ही विद्वानो की परम्परा मे कुछ विदेशी विद्वान् भी प्राकृतो को उन्मुक्त रूप से युगयुगो
1
वानरामायण 48, 491