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___36 ] तथा अन्य पारम्परिक जैनेन्द्र आदि व्याकरणो की दुल्हताओ को दूर करना ही उनका प्रमुख उद्देश्य था । पाणिनि ने दीर्घ सघि का आख्यान "अक सवर्णे दीर्घ" कह कर किया था। यह सूत्र सामान्य पाठक की समझ मे तव तक नहीं पा सकता जब तक कि वह "माहेश्वर-प्रत्याहार सूत्र"1 का भली भाति पारायण न कर ले । प्राचार्य ने इसी बात को अत्यन्त सरल शब्दो मे प्रतिपादित कर दिया- समानाना तेन दीर्य 11211 ।
इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र का यह व्याकरण ग्रन्य उनके गहन एव विस्तृत अध्ययन का परिणाम होने के साथ ही विभिन्न स्तर के व्याकरण पढने वालो के लिए अत्यन्त सरल भी है । परम्परा मे चली ग्राती हुई अनेको कमियो की पूर्ति इस एक ही ग्रन्य ने कर दी। इस ग्रन्य को लेकर कुछ लोगो ने यह भी कहने का प्रयत्न किया है कि इसमे विषयगत मौलिकता नहीं है । आचार्य हेमचन्द्र ने पाणिनि तथा अन्य सम्कृत और प्राकृत वैयाकरणो द्वारा कही गयी वातो का पुनरास्थान मात्र कर दिया है । परन्तु यदि ध्यान से देखा जाये तो यह तर्क हेमचन्द्र के पक्ष मे ही पाता है । हेमचन्द्र का उद्देश्य यह नहीं था कि वे सर्वया नवीन व्याकरण शास्त्र की रचना करें वे तो चाहते थे कि परम्परा मे प्रचलित व्याकरण ग्रन्थो की दुल्हतायो को दूर कर उन्हे मर्वजन मवैद्य बनाया जाये । व्याकरणगत दुरुहताप्रो के ज्ञान के लिए ही उन्होने काश्मीर पुस्तकालय से पाठ व्याकरण के ग्रन्य मगाये थे। उनका गम्भीर अध्ययन कर उन्होंने व्याकरणिक मिद्धान्तो का प्रतिपादन सरलतम रूप मे किया । उनमे विषयगत नवीनता भले ही न हो परन्तु उनकी प्रतिपादन शैली तो मौलिक है ही। इसके अतिरिक्त प्राकृत और अपभ्र श भाषाम्रो के व्याकरण का एक समाहार भी उनकी । मौलिकता ही कही जायेगी । अपभ्र श भाषा का सर्वप्रथम हेमचन्द्र ने हा विवेचन किया। इम प्रकार 'हैमणब्दानुशामन' प्राचार्य हेमचन्द्र की एक अभूतपूर्व व्याकरणिक कृति है जिमका जोट न तो परम्परा में कही प्राप्त और न मम्भवतः प्राप्त ही होगा।
प्राचार्य हेमचन्द्र के कोप ग्रन्थ .
मम्मत और प्राकन शब्दानुगामन की ममाप्ति के बाद प्राचार्य हेम्चन्द्र ने मम्पन तथा देणी गन्दो का प्रारपान करने के लिये कोप ग्रन्थो की रचना की । "अभिमानचिन्लामरिण के प्रारम्भ में उन्होने बय ही कहा--" अपने प्रशो सहित मयानुगामन का निर्माण करने के बाद मै नाममाला (समा शब्दो के ममूह) का मान्धान परता है । इनमे कुछ नामपद ऐसे हैं जिनको व्युत्पत्ति नहीं दी जा सकती,
1. नाग न जादि ।