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"सिद्धहमशब्दानुशासन" परम्परा मे लिखे गये सभी व्याकरणो से पूर्ण एव महत्त्वशाली है उसी प्रकार यह कोश भी अन्य कोशो मे विलक्षण है। यदि यह कहा जाये कि सम्पूर्ण भारतीय क्या विश्व के साहित्य में इसके समान विलक्षण ग्रन्थ नही है तो कोई अत्युक्ति नही होगी । भाषा विवेचन के साथ ही उच्चकोटि के साहित्यिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति ही इसकी अपनी विलक्षणता है । भाषा वैज्ञानिक महत्त्व ।
हेमचन्द्र के इस कोश के आधार पर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ के विकास की सागोपाङ्ग कथा लिखी जा सकती है । आज की प्रचलित साहित्यिक भाषामो मे कितने ही ऐसे शब्द बिखरे पडे हैं जिनके बारे मे हम कुछ नही जानते । ये शब्द-सदियो से जन-मानस में अपना स्थान बनाये हुए हैं। इनका प्रत्याख्यान अत्यन्त कठिन है। ऐसे ही शब्दो को परम्परा के सभी विद्वानो ने "देसी" कहकर इनके बारे मे कुछ भी कहने से चुप्पी साध ली है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन्ही कठिन एव दुसभित शब्दो का प्रत्याख्यान अपने इस देशी कोश मे किया है । वे इस बात को कोश के प्रारम्भ मे कह देते हैं
___ देशी दु सदर्भा प्राय समिता अपि दुर्बोधा ।
अनादिकाल से चलते आये देशी शब्दो का सदर्भ देना अत्यन्त कठिन कार्य है। सदर्भ मिल जाने पर भी इनका समझाना अत्यन्त कठिन है। "देशीनाममाला" मे अनेको "देशी" शब्द आये हैं, इसमे आये कुल शब्द 4 हजार के लगभग हैं, परन्तु इसके सभी शब्द देशी नही हैं। इन शब्दो का उद्भव और इनका विकास एक सर्वथा नवीन तथ्य का उद्घाटन करता है। आर्य भाषा मे प्रचलित देशी कहे जाने वाले इन शब्दो मे 700 से भी अधिक शब्द कौल, सथाल, मुण्डा, द्रविड प्रादि जातियो की भाषा से सर्भित किये जा सकते हैं । ये शब्द पार्यों और प्रार्येतर जातियो के आपसी सम्बन्ध और वैचारिक आदान-प्रदान की एक अत्यन्त रोचक कहानी प्रस्तुत करते हैं । इस प्रकार तुलनात्मक एव ऐतिहासिक दोनो ही दृष्टियो से इन शब्दो का बहुत महत्त्व है । आधुनिक भाषा विज्ञान प्राचार्य हेमचन्द्र के इस पथ प्रदर्शक कोश का चिर ऋणी रहेगा। कितने ही भाषा वैज्ञानिको ने इन शब्दो के सहारे अनेको नवीन तथ्यो का उद्घाटन किया है । साहित्यिक महत्त्व :
प्रथम शदी मे आन्ध्र के हाल सातवाहन द्वारा सकलित प्राकृत के अद्भुत काव्य ग्रन्थ "गाथासप्तशती" के समान ही आचार्य हेमचन्द्र की "देशीनाममाला"