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विमृश्याभिदघे सूरिनवाड्केश्वरवत्सरे । चतुझं मार्गशीर्पस्य श्यामाया पुप्यगे तिथौ ।। 184 ।। अपराले तवैश्वर्य यदि नोर्जस्वि जायते, निमित्तालोक सन्त्यास (?) स्तात . परमस्तुमे ।। 185 ।। प्रतिज्ञायेति सूरीन्द्रस्तदा तद्दिन परकम् । लेखित्वा प्रददौ तस्मै सचिवोदयनाय च ।। 186 ।। तेन तस्य सुरस्येव ज्ञानेनातिचमत्कृत ।। चौलुक्यस्तमुवाचेव घटिताजलि मजुल ॥ 187 ।। यद्यतत्त्वद्वच सत्य त्वमेव क्षितिपस्तदा । अह तु त्वत्पदाम्भोज सेविष्ये राज हसवत् ।। 188 ॥ वदन्तमिति त सूरिर्जगी राज्येन किं मम । भानुनेव त्वयोभास्य शश्वज्जैन मताम्बुजम् ॥ 189 ।।
-"कुमारपाल चरित" इसके ठीक बाद ही जयसिंह के आदमी कुमारपाल को ढूढते हुए पहुंचे। प्राचार्य ने वसति के भूमिगृह (तहखाने) मे कुमारपाल को छिपा दिया और उसके द्वार को पुस्तको से वन्द कर दिया । तत्पश्चात् जब जयसिंह की मृत्यु हुई प्राचार्य की भविष्यवाणी के अनुसार कुमारपाल सिंहासनारूढ हुआ । यह घटना वि स 1199 की है । इस समय कुमारपाल की अवस्था 50 वर्ष थी।
कुमारपाल के राजा हो जाने के बाद हेमचन्द्र कर्णावती से अहिल्लपुर आये । मत्री उदयन ने उनका प्रवेशोत्मव किया। उनके यह पूछने पर कि कुमारपाल उन्हे याद करता है या नही ? मत्री ने बताया कि वह प्राचार्य को भूल चूका है। इस पर हेमचन्द्र ने कहा कि "अाज आप जाकर राजा से कहे कि वह अपनी नयी रानी के महल मे न जाये वहा आज दैवी उत्पात होगा ।" उन्होने मत्री को इस बात के लिए समझा दिया कि वह बहुत पूछने पर ही राजा से यह वतायें कि मेरे द्वारा यह वात वताई गई है । मत्री ने जाकर राजा से कहा । रात्रि को महल पर बिजली गिरी और रानी की मृत्यु हो गयी। चमत्कृत कुमारपाल को जब आचार्य द्वारा बताई गई इस चमत्कारपूर्ण वात का पता चला, वह अतीव प्रमुदित हुआ और उन्हे वुलाकर महल मे ले आया-उसने अपनी प्रतीज्ञा के अनुसार सूरीश्वर को राज्य देने की इच्छा की । सूरि ने कहा-"राजन् अगर आप कृतज्ञता स्मरण कर प्रत्युपकार करना चाहते हैं तो जैन धर्म स्वीकार कर उसका प्रसार करें। राजा ने धीरे-धीरे यह धर्म स्वीकार किया । उसने अपने राज्य मे प्राणिवघ, मासाहार, असत्य भाषण, धूत