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कुमारपाल द्वारा सिंहासन छीन लिये जाने का डर लगा रहता रहा होगा अत वह उसको मरवा डालने मे ही अपना कल्याण समझता था। "पुरातन प्रबन्ध सग्रह" के अनुसार कुमारपाल ने मार डाले जाने के भय से २० वर्ष की अवस्था मे ही प्रणहिल्लपुर छोड दिया था । वह भारत के विभिन्न भागो मे घूमता रहा । सात बार केदारनाथ की यात्रा की। इस प्रकार वह ३० वर्ष तक छिपकर अपनी रक्षा करता रहा । उज्जयिनी मे एक मोची की दुकान पर जयसिंह की मृत्यु की चर्चा सुनकर वह पुन अहिल्लपुर वापस आया ।'
हेमचन्द्र और कुमारपाल की प्रथम भेट
"सिद्धराज-जयसिंह से डर कर प्राण बचाकर भागता हुआ कुमारपाल स्तम्भतीर्थ पहुँचा । यहा पर वह उदयन मत्री और प्राचाय हेमचन्द्र से मिला । दुखी कुमारपाल ने प्राचार्य से पूछा-'प्रभो | क्या मेरे भाग्य मे इसी तरह कष्ट भोगना लिखा है कि और कुछ भी है ? आचार्य ने कहा-भवता कियतापि त्व कालेन क्षितिनायक ।।
-जयसिंह सूरि कृत कुमारपालचरित प्राचार्य के इस कथन पर उसे विश्वास नहीं हुआ। सूरीश्वर ने थोडी देर विचार कर कहा--"मार्गशीर्ष कृष्ण १४ वि०स० १११६ मे आप राज्याधिकारी होगे । मेरा यह कथन कभी असत्य नही हो सकता।" यह तिथि उन्होंने एक पत्रक पर लिखकर कुमारपाल तथा उदयन मत्री दोनो को दे दी। इस पर कुमारपाल बोला-"प्रभो । यदि आपका वचन सत्य हा तो आप ही पृथ्वीनाथ होगे । मैं तो आपके पाद पद्मो का सेवक बनू गा । "हंसते हए सूरीश्वर बोले "हमे राज्य से क्या काम ? यदि आप राजा होकर जैन धर्म की सेवा करेगे तो हमे प्रसन्नता होगी।"
पुरातन प्रवन्ध सग्रह, पृष्ठ 38 । जिनमण्डन कृत कुमार पाल प्रबन्ध मे (पृ0 18-22), इसके पहले भी एक बार हेमचन्द्र और कुमारपाल की भेंट वर्णित है-"एक बार कुमारपाल जयसिंह से मिलने गया था। उसने मुनि हेमचन्द्र को वहा सिंहासन पर बैठे देखा । वह उनके व्यक्तित्व से बहुत अधिक प्रभावित हुआ
और उनके भापण कक्ष मे जाकर भाषण सुनने लगा । उसने आचाय से पूछा-मनुष्य का सबसे वडा गण क्या है ? आचार्य ने कहा-'दूसरो की स्त्रियो में मा बहिन की भावना रखना सबसे बडा गुण है।" यदि इस घटना को ऐतिहासिक माना जाये तो यह स0 1169 के पहले र्की होगी या लगभग इसी समय की होगी। क्योंकि इस समय तक कमारपाल निश्चित होकर जयसिंह के राज्य मे रह रहा था । ऊपर की कथा का इस कथा से कोई विरोध भी नहीं है। कुमारपाल का एकाएक हेमचन्द्र से अपनी समस्या का समाधान पूछने का ढग भी बताता है कि वह उनसे पूर्व परिचित था।