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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
Dairmaantar
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नारकी हुआ। वहां दश सागर पर्यन्त अनेक दुःख भोगता रहा। फिर वहांसे निकलकर उसी नगरीके पासमें विद्यमान एक पर्वतपर शादल हुआ। किसी समय उस पर्वतपर वहांके तात्कालिक राजा प्रीतिवर्धन अपने छोटे भाईके साथ ठहरे हुए थे। राजा पुरोहितने उनसे कहा-'यदि आप इस पर्वतपर मुनिराजके लिये आहार देवें तो विशेष लाभ होगा। जब राजाने पुरोहितसे कहा कि इरा निर्जन पहाड़पर कोई मुनि आहारके लिये क्यों आवेगा ? तब उसने कहा कि तुम नगरीको समस्त रास्ताएं सुगन्धित जलसे सिंचवाकर उन पर ताजे फूल विछवा दो अर्थात नगरीको इस तरह सजवा दो कि जिससे कोई निर्ग्रन्थ मुनि उसमें प्रवेश न कर सकें। क्योंकि वे अप्रासुक भूमिपर एक कदम भी नहीं रखते । तव कोई मुनि अहिारके लिये नगरीमें न जाकर इसी
ओर आगे सो आप पड़गाहकर उन्हें विधि पूर्वक आहार दे सकते हैं । राजा प्रीतिवर्धनने पुरोहितके कहे अनुसार ऐसा ही किया जिससे एक पिहितास्रव नामके मुनि नगरीको विहारके अयोग्य समझकर बनमें आहार मिलेगा तो लेवेंगे अन्यथा नहीं' ऐसा संकल्पकर उसी पर्वतकी ओर गये जहांपर राजा प्रीतिवर्धन मुनिराजकी प्रतीक्षा कर रहे थे। मुनिराजको आते हुए देखकर राजाने उन्हें भक्तिपूर्वक पड़गाहा और उत्तम आहार दिया। पात्रदानसे प्रभावित होकर देवोंने वहांपर रत्नोंकी वर्षा की। रत्नोंको बरषते हुए देखकर मुनिराज पिहितास्रवने राजासे कहा-'ऐ धरारमण ! दानके वैभवसे बरसती हुई रत्न धाराको देखकर जिसे जाति स्मरण हो गया है ऐसा एक शार्दूल इसी पर्वतपर सन्यास वृत्ति धारण किये हुए है सो तुम उसकी योग्य रीतिसे परिचर्या करो वह आगे चलकर भारत क्षेत्रके प्रथम तीर्थंकर वृषभनाथका प्रथम पुत्र सम्राट भरत होकर मोक्ष प्राप्त करेगा। मुनिराजके कहे अनुसार राजाने जाकर उस शार्दूलकी खूब परिचर्या की और मुनिराजने स्वयं पंच नमस्कार मन्त्र सुनाया जिससे वह अठारह दिन बाद समता परिणामोंसे मरकर ऐशान स्वर्गके दिवाकर प्रभ विमानमें दिवाकर देव हुआ। पात्रदानके तात्कालिक अभ्युदयसे चकित होकर प्रीतिवर्धन राजाके सेनापति, मन्त्री और पुरोहितने भी अत्यन्त शान्त परिणामोंसे राजाके द्वारा दिये गये मुनिदानको अनुमोदना