Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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शास्त्राधारेषु पुण्यादजनि सजगतां कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ॥१३॥ रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाहयेऽपि संव्यञ्जयितु यतीशः । .
रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः ॥१४॥' अर्थात् यतीन्द्र कुन्दकुन्दाचार्य रजःस्थान पृथ्वीतलको छोड़कर चार अंगुल ऊपर गमन करते थे, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे अन्तः और बाह्य रज (घूल) से अत्यन्त अस्पृष्टता व्यक्त करते थे। विविध संघ और आचार्य कुन्दकुन्द एवं कुन्दकुन्दान्वय :
आचार्य कुन्दकुन्दका व्यक्तित्व और कर्तृत्व इतना अनुपम था कि दिगम्बर जैन परम्पराके प्रायः सभी संघोंने अपनेको कुन्दकुन्दान्वयका माननेमें गौरवशाली अनुभव किया। यही कारण है कि मूलसंघके अनेक भेद-प्रभेद हो जाने अथवा स्वतन्त्र अन्यान्य संघ बन जानेके बावजूद सभी संघ आचार्य कुन्दकुन्द या कुन्दकुन्दान्वयकी परम्पराका अपनेको सच्चा अनुयायी मानते हुए भावनात्मक एकता, जैन शासनको अभ्युन्नति एवं आत्मकल्याणके लक्ष्यमें एकजुट होकर लगे रहे । और यही कारण है कि जब हम उस लम्बे समयके जैन साहित्य, संस्कृति, धर्म-दर्शन और आचार-विचारोंको श्रेष्ठता तथा जैनधर्मको शाश्वतता प्रदान करने हेतु उनके त्यागकी ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमारा मस्तक गौरवसे ऊंचा उठ जाता है और हमें अपने अन्दर अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है कि हम अपने भारतकी इस महान् धरोहरके उत्तराधिकारी और अनुयायी हैं। किन्तु हम सभीको भी इस बड़े उत्तरदायित्वका बोध होने और इसके विकासके लिए चेष्टा करते रहनेके विषयमें भी निरन्तर सोचते रहने की बड़ी आवश्यकता है । - जैसा कि यहां कहा गया है कि दिगम्बर जैन परम्परा के प्रायः सभी संघों ने कुन्दकुन्द की परम्परा के अन्तर्गत अपने को घोषित किया। इनमें द्रविडसंघ, नन्दि, सेन और काष्ठासंघ-ये चार प्रमुख हैं। इन सभी के कुन्दकुन्द अन्वय से सम्बन्धित होने के शिलालेखादि में उल्लेख प्राप्त होते हैं। अंगदि से प्राप्त शिलालेख संख्या १६६ में द्रविड़संघ कोण्डकुन्दान्वय लिखा है। शिलालेख सं. ५३८ में सेनगण के साथ कुन्दकुन्दान्वय जुग हुआ ही है। और नन्दिसंघ तो मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय, देशियगण, पुस्तकगच्छ से सम्बद्ध था ही। मूलसंघ दिगम्बर परम्परा में प्रमुखता से भान्य रहा है। मूलसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख
१. जैन शिलालेख संग्रह भाग १, पृ० १९७-१९८.
२. जैन शिलालेख संग्रह भाग. ३. शि० सं० ५३८, जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ... १. कि०४ पृ. ९०.
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