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कहा, सीधा-सीधा क्यों नहीं कहते कि बाहर कर डर है? उसने कहा, अब आप नहीं मानते तो मान लेता हूं कि बाहर का डर है। तो उस बाहर के डर को तो बाहर से ही मिटाना पड़ेगा। यह भीतर से नहीं मिट सकता।
ये गैरिक वस्त्र तो सिर्फ इस बात की खबर हैं कि तुम राजी रंगने को। सदगुरु के पास होने का अर्थ है कि तुम उसके रंग में रंगने को राजी। सदगुरु तो रंगरेज है। वह तो तुम्हारी ओढ़नी को रंग देता है। पर तुम्हारा सहयोग जरूरी है। वृक्ष घनी छाया से भरा है। लेकिन तुम उसके नीचे विश्राम करो तो वृक्ष कुछ भी न कर पायेगा । वृक्ष तुम्हारे पीछे दौड़ नहीं सकता। तुम्हें वृक्ष के साथ सहयोग करना होगा।
सदगुरु जीवन में क्रांति ला सकता है। आमूल रूपांतरण हो सकता है। लेकिन तुम्हारे सहयोग के बिना न होगा। और तुम्हारा सहयोग तभी संभव है जब सदगुरु की मौजूदगी तुम्हें अपने जीवन से भी ज्यादा मूल्यवान मालूम होने लगे। तभी तुम रंगने को राजी होओगे, नहीं तो नहीं ।
मौत अच्छी है जो दम निकले तुम्हारे सामने
आंख से ओझल हो तुम तो जिंदगी अच्छी नहीं
ऐसा जब लगने लगे।
मेरे दिल की नैरंगी पूछते हो क्या मुझसे
तुम नहीं तो वीराना तुम रहो तो बस्ती है जब ऐसा लगने लगे।
कहां हम कहां वस्ते - जाना की हसरत
बहुत है उन्हें एक नजर देख लेना
- जब ऐसा लगने लगे। एक नजर भी जब परम तृप्ति देने लगे तो फिर सदगुरु की छाया में होने का अर्थ समझ में आयेगा ।
ये कोई हिसाब-किताब की बातें नहीं हैं, ये तो पागलों की बातें हैं। बेहिसाब-किताब हैं। दीवानों की बातें हैं।
गो न समझें उसकी बातें, गो न पाऊं उसका भेद
पर यह क्या कम है कि मुझसे वह परीपैकर खुला
सदगुरु की बातें तुम्हें समझ में थोड़े ही आयेंगी एकदम से तो कैसे समझ में आयेंगी?
गो न समझें उसकी बातें, गो न पाऊं उसका भेद
न उसकी बात समझ में आये, न उसके भेद का कुछ पता चले, न राज का पता चले। बिलकुल ठीक ही है। लेकिन फिर भी प्रेम का दीवाना खिंचा चला जाता है।
पर यह क्या कम है कि मुझसे वह परीपैकर खुला
वह दिव्यदेही मुझसे बोला यही क्या कम है? नहीं समझे उसकी बात नहीं समझे उसका भेद । छोड़ो। समझ लेंगे कभी। जल्दी भी क्या है? लेकिन उसने कहा, उसने कहने योग्य समझा, उसने इतना