________________
क्या आदतें बदली जा सकती हैं? ३५
चैतन्य की अनुभूति का और समता का प्रभाव इस शरीर पर ही नहीं होता किन्तु वृत्तियों की तरंगों को पैदा करने वाले पर भी होता है। यह मूल पर प्रहार करने की प्रक्रिया है इसलिए यह स्थायी समाधान है। विज्ञान से आगे की प्रक्रिया है। तरंगातीत अवस्था तक पहुंचने की यही एकमात्र प्रक्रिया है। इसका अवलम्बन लिए बिना उसकी प्राप्ति असंभव है।
अध्यात्म की चेतना को जगाना, अपने आप पर आस्था केन्द्रित करना, अपने आपको जानना, अपनी खोज करना, खोज के संदर्भ में आने वाले कष्टों के लिए स्वयं को समर्पित करना, कष्ट-सहिष्णुता का विकास करना, कष्टों को आनन्द में बदल देना-यह सारी प्रक्रिया ध्यान की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से केवल शारीरिक संस्थान ही प्रभावित नहीं होता, केवल शरीर की केमिस्ट्री ही नहीं बदलती, किन्तु यह प्रक्रिया सूक्ष्म-जगत् तक पहुंचकर हमारे सूक्ष्म-शरीर-तैजस-शरीर और कर्म-शरीर को प्रभावित करती है। वहां पहुंचकर विकृतियों के अस्तित्व को ही समाप्त कर देती है। कर्म-शरीर सारी विकृतियों का मूल है। ध्यान की प्रक्रिया से उस पर प्रहार होता है।
ध्यान-प्रक्रिया की खोज विश्व की महानतम खोज है। जो व्यक्ति तरंगातीत अवस्था को प्राप्त करने की दिशा में एक चरण भी आगे रखते हैं वे वास्तव में सत्य साक्षात्कार की दिशा में प्रस्थित हैं। उनकी संख्या चाहे दो-चार ही हो या अधिक हो। संख्या गौण है। मूल है उस दिशा में प्रस्थान।
एक दिन आचार्य भिक्षु ने साधुओं से कहा-'आओ, व्याख्यान शुरू करें।' साधुओं ने कहा-'कोई श्रोता तो है ही नहीं? व्याख्यान किसे सुनाएंगे?' आचार्य भिक्षु बोले- क्या तुम श्रोता नहीं हो? मैं व्याख्यान देता हूं। तुम सुनो।' आचार्य भिक्षु ने व्याख्यान प्रारम्भ कर दिया। साधु सुनने लगे। यह क्रम चला। लोग भी आने लगे।
यही बात ध्यान-साधकों को करनी है। यदि ध्यान करने वाला दूसरा व्यक्ति न हो तो स्वयं को ही ध्यान में लगा दें। स्वयं ही ध्यान करने वाले और स्वयं ही ध्यान कराने वाले दोनों बन जाएं। साधना में अध्यात्म का आकर्षण रहे। दूसरों पर आकर्षण यदि गया तो अध्यात्म भी राजनीति की भीड़ बन जाएगा। हमारा आकर्षण केवल अध्यात्म के प्रति ही रहे, परिग्रह के प्रति न हो। आज जब मैं देखता हूं कि अध्यात्म को भी कुछेक लोगों ने व्यवसाय बना डाला है तब बहुत कष्ट होता है। इससे हम बचें।
आपका आकर्षण स्वयं के प्रति रहे, अन्य के प्रति नहीं। अन्य के प्रति होने वाले आकर्षण में धोखा हो सकता है। साधक की आस्था स्वयं के प्रति ही हो । वह इस आस्था को विस्तार दे और संकल्प-शक्ति द्वारा अपने मस्तिष्कीय रसायनों को बदलने का प्रयत्न करें। इससे एक नयी दिशा उद्घाटित होगी,
अध्यात्म यशस्वी और शक्तिशाली बनेगा। Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org