________________
केवल-दर्शन की साधना २०१
गये। दो मील चले, और वह संन्यासी बोला-देखो भाई, मैं फिर तुम्हें कह देना चाहता हूं कि तुमने अच्छा नहीं किया। सुन लिया। स्थान पर पहुंचे। पहुंचते ही उस संन्यासी ने फिर कहा-आज तुमने रास्ते में अच्छा काम नहीं किया। भोजन का समय हुआ और खाने बैठे तो उसने फिर वही गाना शुरू किया-तुमने रास्ते में अच्छा काम नहीं किया। संन्यासी से रहा नहीं गया, बोला--मैं तो उस युवती को कंधे पर बिठाकर नदी पार कराकर वहीं छोड़ आया, किन्तु तुम तो अभी भी उसका भार सिर पर लिये घूम रहे हो। ज्ञान : मूल्यांकन का विस्तार
काम समाप्त हो जाता है, कल्पना समाप्त नहीं होती। प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है, विकल्प समाप्त नहीं होता। घटना समाप्त हो जाती है, घटना का झंकार समाप्त नहीं होता। नाद समाप्त हो जाता है किन्तु उसकी प्रतिध्वनि समाप्त नहीं होती। ये प्रतिध्वनियां ही हमारी शक्ति को खत्म करती हैं। अस्तित्व-बोध जहां होता है, जहां दर्शन होता है, केवल देखना होता है, वहां कोई प्रतिध्वनि नहीं होती। वहां कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। वहां कोई प्रतिनाद नहीं होता। वहां केवल क्रिया होती है, प्रतिक्रिया नहीं होती। वहां कोरा अस्तित्व का बोध होता है, जिसके साथ कोई विकल्प नहीं जुड़ता, कोई शब्द नहीं जुड़ता। अस्तित्व के बोध में कोई शब्द नहीं होता और जब ज्ञान होता है तो उसके साथ शब्द जुड़ जाता है। 'है', 'है',-दर्शन इतना ही है। केवल 'है', यह है दर्शन। इतना अनुभव होता है कि 'है', इससे आगे कुछ भी नहीं। किन्तु जहां 'अमुक है', यह शब्द जुड़ गया, वह ज्ञान बन गया। चेतन है, अचेतन है, शब्द है, रूप है, रस है, गन्ध और स्पर्श है-ये सारे विकल्प ज्ञान के होते हैं। जहां केवल 'है', वहां दर्शन है। ‘आदमी है' यह दर्शन है। 'यह अच्छा आदमी है', 'यह बुरा आदमी है', यह सारा ज्ञान हो गया। विकल्प साथ में जुड़ गया। यह सुन्दर है, यह कुरूप है, बड़ा आदमी है, छोटा आदमी है, बड़ा विद्वान् है, मूर्ख है, विकल्प जुड़ गया, शब्द जुड़ गया, दर्शन नहीं रहा, ज्ञान बन गया और जैसे ही विकल्प साथ में जुड़ा, एक दूसरी धारा प्रवाहित हो गई। विकल्प जुड़ने का अर्थ है-राग-द्वेष का जुड़ जाना। जहां विकल्प जुड़ते हैं वहां साथ में राग और द्वेष जुड़ जाते हैं। जहां केवल-दर्शन होता है वहां न राग होता है और न द्वेष । न प्रियता और न अप्रियता, कोई संवेदन नहीं होता। केवल 'है' होता है। 'है' के सिवाय और कुछ नहीं होता। 'है' अस्तित्व है, अस्ति है। उसमें और कोई भेद नहीं होता। जब आदमी अस्ति की भूमिका में होता है, कोई समस्या नहीं होती, कोई कठिनाई नहीं होती, कोई दुःख नहीं होता और कोई सुख भी नहीं होता। केवल 'होता है', इसके सिवाय और कुछ नहीं होता। एक कांच कांच होता है, मणि मणि होता है। घोड़ा घोड़ा होता है, गधा गधा होता है। आदमी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org