________________
२८० अप्पाणं सरणं गच्छामि
हैं जितने तर्क आत्मा के मंडन में हैं। खंडन करने वाला भी नहीं जानता कि आत्मा नहीं है और मंडन करने वाला भी नहीं जानता कि आत्मा है। वादी और प्रतिवादी-दोनों अनुभवशून्य हैं। दोनों इस ज्ञान से शून्य हैं। आत्मा को आस्तिक भी नहीं जानता और नास्तिक भी नहीं जानता। दोनों केवल मानते हैं।
तर्क से आत्मा के अस्तित्व का खंडन भी किया जा सकता है और मंडन भी किया जा सकता है। तर्क कहीं नहीं पहुंचाता। वह उलझाता है। यह तर्क का एक खेल है। एक पक्ष आत्मा को सिद्ध कर रहा है। दूसरा पक्ष उसके अस्तित्व को नकार रहा है। किन्तु दोनों नहीं जानते कि वास्तविकता क्या है? जब तक हम तर्कातीत, शब्दातीत और विकल्पातीत नहीं होते, तब तक आत्मा को उपलब्ध नहीं कर सकते। उसको उपलब्ध करने का एकमात्र उपाय है-निर्विकल्प-चेतना का निर्माण। इसे साम्य-चेतना, स्वस्थ-चेतना, समाधि-चेतना, शुद्धोपयोग-चेतना कहा जा सकता है। यही चित्त-निरोध की चेतना है। जिस तत्त्व को चित्त का निरोध करके जानना होता है उसे हम बुद्धि के व्यापार से, चित्त के व्यापार से जानना चाहें, यह कभी संभव नहीं है। जिस तत्त्व को आंखें बन्द कर जानना है उसे हम आंखें फाड़-फाड़कर जानना चाहते हैं। जिस तत्त्व को कान बन्द कर जानना होता है उसे हम शब्दों को सुन-सुनकर जानना चाहते हैं। यह कभी संभव नहीं है। इन्द्रियातीत चेतना, बुद्धि से परे की चेतना, मनसातीत चेतना होती है तब आत्मा की सीमा में प्रवेश किया जा सकता है, अन्यथा नहीं।
दूसरे शब्दों में चैतन्य के अनुभव का एकमात्र उपाय है-रेचन, खाली करना। बुद्धि को, चित्त को और मन को पूर्ण खाली करें, समाप्त करें, विलीन करें। इन्द्रियों को खाली करें। खाली करने पर ज्ञात होता है कि यथार्थ क्या है? खाली में भगवान् होता है ___एक संन्यासी एक दुकान पर गया। दुकानदार से पूछा-इस डिब्बे में क्या है? दुकानदार ने कहा-आटा है। इसमें क्या है? दाल है। इसमें क्या है? घी है। पूछता रहा। दुकानदार बताता रहा। अन्त में एक डिब्बा बचा। संन्यासी ने पूछा-इसमें क्या है? उसने कहा-यह खाली है। इसमें कुछ भी नहीं है। संन्यासी उछल पड़ा। उसने कहा-डिब्बे में कुछ भी नहीं। इसका अर्थ है इसमें भगवान् हैं। दुकानदार ने कहा-महाराज! यह खाली है। इसमें भगवान् कैसे? संन्यासी बोला-जिसमें और कुछ नहीं होता, खाली होता है, उसमें भगवान् होते हैं।
संन्यासी ने बहुत बड़े सत्य का उद्घाटन किया कि जो रिक्त है उसी में भगवान् का निवास है। रिक्त मन में, रिक्त चित्त में और रिक्त इन्द्रियों में सममुच
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org