Book Title: Appanam Saranam Gacchhami
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 316
________________ नयी आदतें : नयी आस्थाएं ३०५ की आस्थाएं बोल रही हैं। चिन्ता के पीछे एक प्रकार की आस्था होती है और चिन्तन के पीछे दूसरे प्रकार की आस्था होती है। जो व्यक्ति चिन्तन करना जानता है वह अपाय के बीच में भी उपाय खोज लेता है और उसे समाधान मिल जाता है। जो व्यक्ति चिन्तन करना नहीं जानता, चिन्ता से ग्रस्त रहता है, वह अपाय के आने पर घुटने टेक देता है। उसे कभी समाधान नहीं मिलता। वह उपाय खोज ही नहीं सकता। उसके लिए सफलता के सारे मार्ग बन्द हो जाते हैं। बहुत संकरी रेखा है चिन्ता और चिन्तन में, व्यथा और वेदन में। एक रेखा के परे चिन्ता है, जहां सारी विफलताएं जीवन का वरण कर लेती हैं। एक रेखा है चिन्तन की जहां सारी सफलताएं जीवन का वरण कर लेती हैं। हम ध्यान के द्वारा इस स्थिति का निर्माण करें कि चिन्ता से मुक्त होकर चिन्तन को प्रशस्त करें। व्यथा से मुक्त होकर वेदन को प्रशस्त करें। आस्था के निर्माण का अर्थ है-चेतना का निर्माण, चैतन्य के साथ जुड़ी हुई आस्था का निर्माण । यही है-दृष्टिकोण का परिवर्तन। दृष्टि के द्वारा आस्था का निर्माण होता है। जैसी दृष्टि, वैसी आस्था। जैसी आस्था, वैसा आचरण। आचरण जुड़ा हुआ है आस्था से और आस्था जुड़ी हुई है दृष्टि से। हम ध्यान के द्वारा दृष्टि का परिमार्जन और परिष्कार चाहते हैं। हमारी दृष्टि निर्मल बने, हमारी मूर्छा टूटे और आस्था पवित्र हो। दो दृष्टियां : दो निष्पत्तियां ___ हमारा जीवन संचालित होता है प्राण-शक्ति और मस्तिष्कीय चेतना के द्वारा-यह एक दृष्टि है। दूसरी दृष्टि यह है-हमारा जीवन संचालित होता है शाश्वत चेतना के द्वारा। जब हम चेतना को मस्तिष्क तक सीमित कर लेते हैं, तब हमारी चेतना वर्तमान तक सीमित बन जाती है और वह केवल जीवन के साथ जुड़ जाती है। हमारी चेतना इस जीवन के पहले क्षण में पैदा हुई चेतना नहीं है। वह शाश्वत काल से चली आ रही चेतना है। उसका संबंध केवल इस जीवन के साथ ही नहीं है, अनन्त-अनन्त जीवनों के साथ है। न जाने कितने संस्कार, कितनी वासनाएं और भावनाएं लेकर यह चेतना आयी है और एक नया जन्म ले रही है। इस आस्था के साथ जब आदमी चलता है तब उसका जगत् बहुत बड़ा बन जाता है। उसके सामने इतना विराट् संसार होता है कि वह वर्तमान की समस्याओं की व्याख्या केवल वर्तमान के संदर्भ में ही नहीं करता, किन्तु वह और विराट् जगत् में चला जाता है। जब शाश्वत चेतना के द्वारा आस्था का निर्माण होता है तो आदतें भी नये प्रकार की बनती हैं। यदि हमारा जीवन भौतिक पदार्थ से निर्मित जीवन है, तो फिर भौतिक पदार्थ से संबंध-विच्छेद करने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। मूल भौतिक, आवश्यकताएं भौतिक, समाप्ति भौतिक । आदि का क्षण भौतिक, मध्य का क्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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