Book Title: Appanam Saranam Gacchhami
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 323
________________ ३१२ अप्पाणं सरणं गच्छामि वैज्ञानिक उन एकांगी सिद्धांतों के आधार पर सारे संसार को सुखमय बनाने का सपना देख रहे हैं, किंतु उपादान को सर्वथा अस्वीकार कर चल रहे हैं। उस ओर ध्यान देना वे आवश्यक ही नहीं मानते। उपादान रहेगा तो कभी-कभी निमित्त आकर उस समस्या को उभार देगा। इसलिए सबसे महत्त्व की बात है कि उपादान पर सारा ध्यान केन्द्रित किया जाए। अध्यात्म की यही महत्त्वपूर्ण देन है। अध्यात्म के लोगों ने सबसे पहले उपादान पर ध्यान दिया। गहरे में जाकर मूल को पकड़ा। मूल है-मूर्छा। जब तक मूर्छा का निदान नहीं होगा, तब तक तनाव समाप्त नहीं होगा। धर्म की समूची आराधना, अध्यात्म की सम्पूर्ण प्रक्रिया, ध्यान का अभ्यास-ये सब मूर्छा को समाप्त करने के साधन हैं। मूर्छा समाप्त होती है, तो तनाव समाप्त हो जाता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि धर्म, अध्यात्म और ध्यान की प्रक्रियाएं तनावमुक्ति की प्रक्रियाएं हैं। हम मूल बात पर ध्यान दें। ध्यान के साथ अनुप्रेक्षा का अभ्यास करें। यह तनावमुक्ति का अचूक साधन है। प्रेक्षा का अर्थ है-देखना और अनुप्रेक्षा का अर्थ है-ध्यान में जो सचाइयां उपलब्ध हों उन्हें स्थिर बनाना, पुष्ट करना और नयी आदतों का निर्माण करना। पदार्थ-प्रतिबद्धता पदार्थ के साथ हमारा संबंध है। हम पदार्थ के साथ योग करते हैं। पदार्थ के प्रति आकर्षण बढ़ता है। पदार्थ आता है तब सुख देता है और जाता है तब दुःख देता है। पुराना रूपक है। लक्ष्मी आती है तब सुखकर लगती है और जाती है तब दुःखकर लगती है। लक्ष्मी का एक नाम है-दौलत। वह आती है तब लात मारती है और जाती है तब भी लात मारती है। पर आती हुई लात मारती है तो अच्छी लगती है। ऐसा लगता है मानो वह लात नहीं मार रही है, सहला रही है। जाती हुई लात मारती है, तो बुरी लगती है। ऐसा लगता है मानो गधा दुलत्ती मार रहा हो। यह स्वाभाविक है। पदार्थ आता हुआ अच्छा लगता है और जाता हुआ बुरा लगता है। क्योंकि पदार्थ के साथ हमारा गाढ़ सम्बन्ध हो गया है। हम इस सचाई को याद रखें कि यह संसार विरोधी युगलों का संसार है। सब युगल हैं। अकेला कछ भी नहीं। संयोग है, तो वियोग होगा। पक्ष है, तो प्रतिपक्ष होगा। यदि इस सचाई को जान जाते (केवल मानते ही नहीं, जान लेते), तो हमें किसी वियोग पर, चाहे वह पदार्थ का हो या व्यक्ति का, कभी कष्ट नहीं होगा। तब लगेगा कि यह तो स्वाभाविक क्रम है। संयोग के बाद वियोग का क्रम अवश्यंभावी है। संयोग होना आश्चर्य है, वियोग होना कोई आश्चर्य नहीं है। इस शरीर के पिंजड़े में नौ द्वार सदा खुले रहते हैं। इस पिंजड़े में प्राण का एक पंछी बैठा है, यह आश्चर्य है। चला जाए, यह आश्चर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354