Book Title: Appanam Saranam Gacchhami
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 335
________________ ३२४ अप्पाणं सरणं गच्छामि विकास सत्य और अचौर्य के आधार पर हुआ। गांव में स्त्री-पुरुष का एक साथ रह पाना ब्रह्मचर्य के आधार पर हुआ। दाम्पत्य जीवन का भी यही आधार बना। लोगों ने स्वीकार कर लिया कि दाम्पत्य को कोई खंडित नहीं करेगा। अपरिग्रह के आधार पर बहुत सारी सामाजिक व्यवस्थाओं का विकास हुआ। समूचे समाज का विकास इन सत्यों के आधार पर हुआ है। किन्तु आज न जाने कैसी भ्रान्ति पलने लगी है कि जहां सत्य और अध्यात्म की चर्चा होती है वहां मनुष्य मान लेता है कि ये सत्य समाज और व्यवहार को विघटित करने वाले हैं। इस एक भ्रान्ति के आधार पर या इस भ्रान्ति को पुष्ट करने के लिए आदमी ने दूसरी भ्रान्ति को जन्म दिया और उसे पालने के लिए तीसरी-चौथी भ्रान्ति पैदा की गई। यह क्रम कहीं रुकने वाला नहीं है। यह अनवस्था का क्रम है। इस अनवस्था के कारण मनुष्य का समूचा जीवन ही भ्रान्तियों का जीवन बन गया है। इन भ्रान्तियों का कहीं अन्त नहीं है। अशरण अनुप्रेक्षा क्या सत्य की शरण में जाना समाज को तोड़ना है? कभी नहीं, यह भ्रान्ति मात्र है। मनुष्य का मन असत्य से इतना भावित हो चुका है कि आज जहां सत्य की बात आती है वहां उसे अनुभव होने लग जाता है कि यह सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को भंग करने वाला है। इस भ्रान्ति को तोड़ने के लिए व्यक्ति अशरण अनुप्रेक्षा का अभ्यास करे। जो व्यक्ति अशरण की अनुप्रेक्षा करता है, अनुध्यान और अनुसरण करता है वह इस सत्य को पकड़ लेता है कि जिन्हें मैं शरण या त्राण मान रहा हूं वे न शरण देने में समर्थ हैं और न त्राण देने में सक्षम हैं। जो शरण और त्राण देने में सक्षम हैं उन्हें मैं शरण और त्राण नहीं मान रहा हूं। यह सचाई जब अनुभूत हो जाती है, तब व्यक्ति भ्रान्तियों के वात्याचक्र से मुक्त हो जाता है। अर्हत् सचमुच शरण है। अपनी आत्मा की अर्हताओं को जागृत करने वाला ही शरण पा सकता है, त्राण पा सकता है और इस अशरण और अत्राण की दुनिया से शरण और त्राण की सीमा में जा सकता है। 'सिद्धे सरणं पवज्जामि'-मैं सिद्ध की शरण में जाता हूं। सिद्ध की शरण में जाने का अर्थ है-अपने अस्तित्व की सारी शक्तियों को उजागर करना, अभिव्यक्त करना, सिद्धि के स्तर तक पहुंच जाना। 'साहू सरणं पवज्जामि'-मैं साधु की शरण में जाता हूं। साधु की शरण में जाने का अर्थ है-साधना की शरण में जाना। साधु दूसरा नहीं होता। छोटे बच्चे के पास चाकलेट है। उसे कहा जाए कि अपने छोटे भाई को दे दो, नहीं देगा। किन्तु उसे यदि कहा जाए कि साधु को दे दो, तो वह तत्काल दे देगा, क्योंकि वह साधु को अपने से दूसरा नहीं समझता। साधु दूसरा नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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