Book Title: Appanam Saranam Gacchhami
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 342
________________ अप्पाणं सरणं गच्छामि ३३१ की सबसे बड़ी हानि यही है कि आदमी का ढांचा बाहर से वैसा का वैसा रह जाता है किन्तु भीतर से सब कुछ चुक जाता है। बहुत बार ये ढांचे, पुतलियां जो बाहर से बहुत सजीव और प्राणवान् लगती हैं, आदमी को भ्रम में डाल देती हैं। जैन पुराणों में आता है कि राजा ने अपनी पुत्री मल्लि की एक ऐसी सजीव पुतली बनाई कि देखने वाले सारे लोग उसे साक्षात् मल्लि कुमारी ही समझ लेते। वे उससे बात करने की चेष्टा करते। वह वास्तव में थी संगमरमर की बनी निर्जीव पुतली। बाहरी ढांचे आकर्षक होते हैं, पर भीतर में कुछ भी नहीं होता। ये ढांचे भ्रम पैदा करने वाले होते हैं। संयम का मूल्य : प्राण-ऊर्जा का संचय इसी प्रकार जो शरीर हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ दिखाई देता है, पर जिसमें प्राण-ऊर्जा नहीं होती, वह निष्प्राण और शक्तिहीन होता है। उससे बड़ा कार्य नहीं किया जा सकता। उसकी शक्तियां चुक जाती हैं। इसलिए उसका कोई विशेष मूल्य नहीं होता। अब्रह्मचर्य का अति-सेवन करने वाला व्यक्ति अपनी प्राण-शक्ति का अतिरिक्त व्यय करता है। उससे उसकी कर्मजा-शक्ति समाप्त हो जाती है। जैसे सूजन आया हुआ शरीर भारी और स्थूल दीखता है, वैसे ही व्यक्ति बाहर से हरा-भरा दिखाई दे सकता है, पर वह होता है-शक्तिशून्य। मैं यह कहना नहीं चाहता कि मांस, हड्डियां, रक्त आदि का कोई महत्त्व नहीं है। इनका अपना महत्त्व है, मूल्य है। व्यक्ति इनकी रक्षा करता है। किन्तु हमारे शरीर में सबसे ज्यादा रक्षणीय है-प्राण-विद्युत् । उसका प्रवाह व्यर्थ न जाए। वह बाहर न जाए। खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करते समय हाथों की अंगुलियों को शरीर से सटाकर रखें, जिससे कि अंगुलियों से निकलने वाली विद्युत् पुनः शरीर में चली जाए। यदि हाथ को शरीर से सटाकर नहीं रखते हैं तो विद्युत् बाहर चली जाती है, व्यर्थ हो जाती है। प्राण-ऊर्जा का संचय बहुत महत्त्व का है। उससे हम अतिरिक्त कार्य कर सकते हैं। प्राण-ऊर्जा का काम इतना ही नहीं है कि व्यक्ति अपना जीवन जी सके। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्राण-ऊर्जा से कोई विशेष कार्य किया जाए। वही आदमी जीवन में बड़ा काम कर सका है जिसने हाथ और पैरों का संयम साधा है, जिसने कान और आंख का संयम साधा है और जिसने जीभ और प्राण का संयम साधा है, जिसने मन और वाणी का संयम साधा है और जिसने इस संयम की प्रक्रिया से प्राण-ऊर्जा को बाहर जाने से रोका है और उसका अतिरिक्त संचय किया है, ऐसे व्यक्ति के मन में नयी स्फुरणाएं होती हैं और वही व्यक्ति अनूठा काम करने में सफल हो पाता है। यह है संयम का एक मूल्य। इसी संदर्भ में संयम की बात अच्छी तरह समझ में आ सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354