________________
समस्या के मूल की खोज २८६
शक्ति-जागरण का सूत्र ___हमारे शरीर में एक तरल पदार्थ है जो मस्तिष्क से लेकर पूरे पृष्ठरज्जु तक फैला हुआ है। उसे 'सैरिगो स्पाइनल फ्यूइड' कहते हैं। इसका रंग भूरा है। यह शक्ति-संचरण का माध्यम है। इसके माध्यम से मस्तिष्क से लेकर पूरे पृष्ठरज्जु तक शक्ति का संचार और विशिष्ट शक्तियों का जागरण होता है। यदि यह तरल पदार्थ न हो तो कोई बौद्धिक विकास या आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता, अतिरिक्त विकास संभव नहीं बन सकता। यह भूरे रंग का तरल पदार्थ बहुत शक्तिशाली पदार्थ है। आयुर्वेद में इसे मज्जा कहा जाता है। इसमें अद्भुत शक्तियां भरी पड़ी हैं। यदि इसे प्रभावित किया जा सके, इस पर ध्यान केन्द्रित किया जा सके तो न केवल बौद्धिक विकास ही किया जा सकता है, अपितु अतीन्द्रिय चेतना का जागरण भी किया जा सकता है। इसके माध्यम से मन की सूक्ष्मतम शक्तियों को खोला जा सकता है, शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। समस्या एक : मूल अनेक ____ आज सबसे बड़ी समस्या है-मन की दुर्बलता। मन इतना जल्दी टूट जाता है कि वह किसी भी परिस्थिति को झेल नहीं पाता। दो वाद हैं। एक है परिस्थितिवाद और दूसरा है चैतन्यवाद। समाजशास्त्री सारी समस्याओं का समाधान परिस्थिति में खोजते हैं। समाजशास्त्रीय भाषा में समस्या है-परिस्थिति। जब परिस्थिति उलझ जाती है तब वह समस्या बन जाती है। जब परिस्थिति सुलझ जाती है तब समस्या सुलझ जाती है। समाजशास्त्र समस्या का पूरा दायित्व परिस्थिति पर डालता है।
मानसशास्त्री मानता है कि समस्या का मूल है तनाव । वह सारी समस्याओं के लिए तनाव को उत्तरदायी मानता है। फिजिकल टेन्सन-शारीरिक तनाव और मेन्टल टेन्सन-मानसिक तनाव-ये समस्या को पैदा करते हैं। शरीर में दर्द तब होता है जब वह तनावग्रस्त होता है। जब शरीर के स्नायु-संस्थान में तनाव भर जाता है तब दर्द होता है, पीड़ा होती है। जब तनाव जम जाता है तब वह हमारे ऊर्जा-क्षेत्र को प्रभावित और क्षतिग्रस्त करता है।
चैतन्यवादी, अध्यात्मशास्त्री या कर्मशास्त्री समस्या के लिए उत्तरदायी मानता है-कर्म के विपाक को, संस्कारों को। कर्म का विपाक होता है, संस्कार जागते हैं तब समस्याएं पैदा होती हैं।
समस्या के प्रति ये अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। तनाव भी उनमें एक मुख्य दृष्टिकोण है। अर्थशास्त्र की दृष्टि से आय कम और व्यय अधिक होता है, तब एक प्रकार का तनाव पैदा हो जाता है, जिससे समस्या पैदा होती है। तनाव की जितनी भाषाएं हैं, व्याख्याएं हैं या जितने दायित्वपूर्ण दृष्टिकोण हैं वे परस्पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org