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२३८ अप्पाणं सरणं गच्छामि
है, प्रतिक्षण बदल रहा है। इन सूक्ष्म परिवर्तनों, सूक्ष्म परिणमनों को हम छोड़ दें तब तो आदमी कोई काम ही नहीं कर सकता। मोटे-मोटे होने वाले परिवर्तनों को भी पकड़ लें तो भी बड़ी बात है। बदलना जरूरी है और बदलने के लिए उन चैतन्य केन्द्रों को, ग्रन्थियों को और हमारे मस्तिष्क में विद्यमान स्वभाव, व्यवहार, आदतों और चरित्र को नियन्त्रित करने वाले बिन्दुओं को खोजना जरूरी है। खोजने का, जानने का एक बहुत बड़ा अर्थ है। हम जानते नहीं तो हमारा अज्ञान नहीं मिटता, हमारी मूर्छा नहीं टूटती। जब तक यह मूर्छा की पट्टी आंख पर बंधी रहती है, तब तक हम बहुत बड़ी सम्पत्ति को रौंदते हुए ऊपर से निकल जाते हैं। हमें पता नहीं चलता कि कितनी अगाध सम्पदा के हम अधिकारी हो सकते हैं।
एक बार दो देवताओं में विवाद हो गया कि भाग्य बड़ा है या पुरुषार्थ? विवाद हर व्यक्ति के मन में पैदा होता है, चाहे मनुष्य हो, चाहे देवता हो। निश्चित हुआ, परीक्षा करें। एक देवता ने कहा-देखो! भाग्य बड़ा नहीं होता, पुरुषार्थ बड़ा होता है। दूसरे ने कहा-नहीं! उस आदमी को देखो। तुम्हें साक्षात् प्रमाणित करूंगा कि पुरुषार्थ बड़ा नहीं होता, भाग्य बड़ा होता है।
पति-पत्नी जा रहे थे। देवता ने रास्ते के बीच रत्नों का ढेर लगा दिया। रत्न ही रत्न बिखेर दिए। जब आस-पास आए, पत्नी ने कहा-अभी तो हमारी आंखें अच्छी हैं, हम देख सकते हैं, हमें सब कुछ दिखाई देता है। कभी ऐसा भी हो सकता है कि बुढ़ापा आने के साथ-साथ हमारी आंखें चली जाएं, हम अन्धे हो जाएं। फिर काम कैसे चलेगा? पति ने कहा-परीक्षा कर लें। देखें, कैसे काम चलेगा? दोनों ने आंखों पर पट्टी बांध ली। दोनों चले। जहां रत्न बिखरे हुए पड़े थे, ढेर लगा था आस-पास में, उससे आगे निकल गए। कुछ आगे जाकर पति बोला-आंखों के बिना काम तो चल जाएगा, ऐसी कोई बात नहीं है। खोल लो पट्टी। ___ पट्टी खोल ली। देवता ने कहा-देखा तुमने! भाग्य में नहीं था, कुछ नहीं मिला। भाग्य बड़ा है पुरुषार्थ से।
भाग्य और पुरुषार्थ की चर्चा को हम छोड़ दें किन्तु इस बात को हम नहीं छोड़ेंगे कि जब तक आंख पर मूर्छा की पट्टी बंधी हुई है, तब तक हमारे आस-पास में, हमारे सामने, दाएं-बाएं, चारों तरफ सम्पदा बिखरी पड़ी है, पर हमें कुछ भी पता नहीं चलता। हम उस सम्पदा से अनजान रह जाते हैं। शरीर-प्रेक्षा के तीन परिणाम । ___ अज्ञान मिटे, मूर्छा मिटे और हमारी सक्रियता, हमारे वीर्य और पराक्रम की ज्योति जो बुझी पड़ी है वह प्रज्वलित हो उठे। कर्म के कारण हमारी चेतना मलिन हो रही है, आवृत हो रही है। जब चेतना मलिन हो रही है तो सूक्ष्म-शरीर
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