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चित्त-शुद्धि और लेश्या-ध्यान २७१
आनन्दघनजी बोले-अच्छा, दो व्रतों का पालन अवश्य करना। एक है-झूठ न बोलना और दूसरा है-कम तोल-मापन करना। दोनों ने स्वीकार कर लिया। आनन्दघनजी ने मंत्र दे दिया। ये घर गए। जनता को पता चला कि ये न झूठ बोलते हैं और न कम तोल-माप करते हैं, भीड़ बढ़ने लगी। व्यापार चौगुना हो गया। धन आने लगा।
एक वर्ष पूरा हुआ। आनन्दघनजी उस गांव में आए। स्वर्णकार भी दर्शन करने गया और बनिया भी पहुंचा। आनन्दघनजी ने पूछा-स्वर्ण-सिद्धि मंत्र की साधना कैसे चल रही है? वे बोले-'महाराज! मंत्र के प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। केवल दो व्रतों की साधना से स्वर्ण ही स्वर्ण हो गया।'
जब जीवन में व्रत आता है तब मनुष्य का चरित्र शुद्ध होता है, आभामंडल निर्मल होता है और उस व्यक्ति में ऐसे परमाणुओं का विकिरण होता है कि बिना बुलाए लोग आते हैं। आकर्षण पैदा हो जाता है। मंत्र की साधना जरूरी नहीं होती। धर्म के दो अंग : प्रयोग और अनुभव
आज सबसे बड़ी समस्या यही है कि लोगों ने चरित्र का मूल्यांकन कम कर दिया। धार्मिक लोगों ने भी यही किया। उन्होंने धर्म को रूढ़ बना दिया। जो धर्म प्रायोगिक था, वह आज प्रयोगशून्य हो गया। जो अनुभव के द्वारा प्राप्त होने वाला तत्त्व था, उससे अनुभव को काट दिया गया। धर्मरूपी पंछी के दो पंख थे। एक था प्रयोग का पंख और दूसरा था अनुभव का पंख। दोनों पंख काट दिये गए। आज वह धर्म का पंछी पंखविहीन होकर तड़प रहा है।
जिस धर्म के साथ प्रयोग नहीं है, कुछ नया जानने की जिज्ञासा नहीं है, नये तथ्य खोजने की अभीप्सा नहीं है, वह धर्म रूढ़ हो जाता है और गढ़े में गिरे हुए पानी जैसा गंदला बन जाता है।
जिसके साथ स्वयं का कोई अनुभव नहीं होता, केवल सुनने और मानने की बात चलती है, वह धर्म बहुत भला नहीं कर सकता। त्याग की शक्ति का उत्स
धर्म की सबसे बड़ी शक्ति है-त्याग की शक्ति। दुनिया में कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है जो त्याग की शक्ति पैदा कर सके। एकमात्र धर्म की चेतना से व्यक्ति में त्याग करने की क्षमता आती है। संसार के सारे शास्त्र भोग की बात सिखाते हैं, बटोरने की बात और इन्द्रियों के विषय के सेवन की बात सिखाते
__ एकमात्र धर्म की चेतना व्यक्ति को त्याग की बात सिखाती है। वह कहती है-त्याग करो, विषयों का परित्याग करो, अनुपलब्ध को उपलब्ध करने का प्रयत्न मत करो। किन्तु आज मूल पर ही कुठाराघात हो चुका है। चरित्र की
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