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२७. चित्त शुद्धि और अनुप्रेक्षा
साधना के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं - ध्यान और स्वाध्याय । समाधि के लिए ध्यान बहुत आवश्यक है और ध्यान के लिए स्वाध्याय अत्यन्त अपेक्षित है । निर्विचार अवस्था में जाने पर स्वाध्याय नहीं होता । निर्विचार अवस्था की उपलब्धि के लिए ध्यान बहुत आवश्यक होता है। विचार को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता । निर्विचारता की एक सीमा है । वह एक सीमा में ही संभव है । अमुक देश और काल में मनुष्य निर्विचार रह सकता है किन्तु जीवन भर वह निर्विचार नहीं रह सकता । जीवन-यात्रा में विचार आवश्यक होता है । बड़ी बात है, विचार को ध्यान में बदल दें। विचार को ही ध्यान बना दें । विचय-ध्यान विचार का ही ध्यान है । वह निर्विचार का ध्यान नहीं है I
स्वाध्याय क्या और क्यों?
स्वाध्याय नहीं करने वाला साधक ध्यान की मर्यादा को नहीं जान सकता । उसके लिए ध्यान में जाना भी सहज-सरल नहीं होता । स्वाध्याय एक सोपान है । इस पर आरोहण करने वाला ध्यान के सोपान पर भी आरोहण कर सकता है । जो स्वाध्याय के सोपान पर आरोहण नहीं करता वह ध्यान के सोपान पर भी आरोहण नहीं कर सकता। दोनों साथ-साथ चलते हैं । ध्यान के पश्चात् स्वाध्याय और स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान- दोनों का योग आवश्यक होता है । ये दोनों एक ही चित्त की दो अवस्थाएं हैं। जब तक पानी तरल है, तब तक पानी है और जब वह जम जाता है तब बर्फ बन जाता है, पानी नहीं रहता । मूलतः दोनों में कोई अन्तर नहीं है । एक ही जल की दो अवस्थाएं हैं । इसी प्रकार एक ही चित्त की दो अवस्थाएं हैं- ध्यान और स्वाध्याय । एक तरल अवस्था है और एक जमी हुई अवस्था है । जब जमने का बिन्दु आता है तब तरल पानी जम जाता है। जब तक जमने का बिन्दु नहीं आता, तब तक वह तरल बना रहता है। बर्फ का भी अपना मूल्य है और तरल पानी का भी अपना मूल्य है। तरल रहने से उसका मूल्य समाप्त नहीं हो जाता, कम नहीं हो जाता । उसकी अपनी विशेषताएं कहीं नहीं जातीं ।
स्वाध्याय हमारे चित्त की तरल अवस्था है । एक बिन्दु पर हम चित्त को केन्द्रित करते हैं, चित्त वहां जम जाता है, स्थिर हो जाता है । वह तरल चित्त ध्यान बन जाता है । जब चित्त उस बिन्दु पर जमता नहीं, स्थिर नहीं होता, आस-पास घूमता है तब वह स्वाध्याय बन जाता है। समस्या को सुलझाने के
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