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१५२ अप्पाणं सरणं गच्छामि
कि दवा बनाने वाले जी सकें और दवा बेचने वाले जी सकें। दवा लो मत, इसलिए कि तुम भी जी सको ।
आज डॉक्टर भी जी रहा है। दवाई बनाने वाली कम्पनियां भी जी रही हैं और दवाई बेचने वाले स्टोर के मालिक भी जी रहे हैं। कठिनाई यह है कि आदमी मर रहा है, क्योंकि वह दवा ले रहा है। तीन सूत्र बराबर चल रहे हैं, किन्तु आदमी दवा ले रहा है। इतनी दवा ले रहा है कि पागलपन को और अधिक बढ़ाने वाली दवा ले रहा है। मानसिक शांति के लिए, चित्त की समाधि के लिए आज न जाने कितनी दवाइयां चल पड़ी हैं। दवाइयां लेते हैं, पर बात बनती नहीं, समाधि मिलती नहीं, शांति मिलती नहीं । मादक वस्तु का काम है एक बार विस्मृति ला देना, भुलावे में डाल देना, मूर्च्छित कर देना और जो हमारे संवेदन- केन्द्र हैं, जो अशांति का अनुभव कराते हैं उन संवेदन- केन्द्रों को निष्क्रिय कर देना । यह कोई समस्या का स्थायी समाधान नहीं है । यह तो ठीक भुलावे में डाल देने वाली बात है और यह भुलावा कब तक चल सकता है? यह वास्तविकता पर पर्दा कब तक डाला जा सकता है? पर्दा डाल देने का मतलब है एक बार छिपा देना किन्तु आखिर पर्दा रहता नहीं । चेतना पर तो पर्दा डाला ही नहीं जा सकता क्योंकि चेतना तो भीतर से भी सक्रिय है, भीतर से अपना काम करती है । उस पर यह पर्दा नहीं डाला जा सकता । समाधि : मानसिक अशान्ति का स्थायी प्रतिकार
मानसिक अशांति का स्थायी उपचार करने के लिए समाधि के सिवाय दुनिया में कोई विकल्प नहीं है। चाहे भगवान् भी आकर स्वयं दवाई देने लग जाए तो भी वह असफल रहेगा, कभी सफल नहीं हो सकेगा। स्वयं अश्विनीकुमार, जो इन्द्र के वैद्य हैं, वे भी दवा देने लग जायें तो इन दवाओं के बल पर, मादक द्रव्यों के बल पर मानसिक अशान्ति को नहीं मिटाया जा सकता । प्रश्न चेतना का है, पदार्थ का नहीं । चेतना की अशान्ति को चेतना के जागरण के द्वारा ही मिटाया जा सकता है और चेतना का जागरण वैराग्य आरम्भ होता है । हमने यदि वैराग्य का अभ्यास नहीं किया, राग की मात्रा को थोड़ा-बहुत भी कम नहीं किया तो यह चैतन्य का जागरण नहीं हो सकता । वैराग्य : समता : प्रसन्नता : एकाग्रता
दूसरा सूत्र है - समता । जिस व्यक्ति ने वैराग्य की साधना नहीं की वह सामायिक की साधना नहीं कर सकता । सामायिक कितना बड़ा व्रत है? क्या वैराग्य के बिना सामायिक की साधना की जा सकती है? वेश बदल लिया । सामायिक की मुद्रा में बैठ गए, एक संकल्प ले लिया और सामायिक हो गया । यदि इतने मात्र से ही सामायिक हो सकता तो फिर बहुरूपिया तो न जाने क्या-क्या कर लेता । बहुरूपिये सब वेश बनाना जानते हैं और बहुरूपिया जितना
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