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१६८ अप्पाणं सरणं गच्छामि
के कारण हम सत्यों को अस्वीकार कर दें। इतनी खोजें होने के बाद भी, इतने सूक्ष्म यन्त्रों के बन जाने के बाद भी क्या वैज्ञानिकों ने ऊर्जा को देखा है? नहीं देख पाये, प्लाज्मा को देख नहीं पाये हैं। ताप को देख नहीं पाये हैं, केवल लक्षणों से अनुमान करते हैं और ग्राफ में आने वाले अंकनों से उसका अनुमान कर लेते हैं। साक्षात्कार नहीं हुआ है, किन्तु साक्षात्कार न होने पर भी अस्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि उनका कार्य उनके सामने आ रहा है। पहले जो बातें अस्वीकार की जाती थीं, आज बहुत सारी बातें स्वीकार की जाने लगी हैं। जब परामनोविज्ञान की शाखा का विकास होने लगा, वैज्ञानिकों ने उसे मान्यता ही नहीं दी। किन्तु आज यह परामनोविज्ञान की शाखा प्रतिष्ठित हो चुकी है। जो तत्त्व काल्पनिक माने जाते थे-आत्मा, पुनर्जन्म, जीवन-मृत्यु, प्रातिभज्ञान, अवधिज्ञान, अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रिय चेतना-ये सारी बातें आज परीक्षण की परिधि में चल रही हैं और बहुत सीमा तक ये सफल भी हो चुकी हैं।
हम अस्वीकार न करें कि देवता जैसी कोई सत्ता नहीं है। जब किसी व्यक्ति को दिव्य-दर्शन होता है, देवता का दर्शन होता है तब सारी असमाधि दूर हो जाती है, सारी उलझनें मिट जाती हैं।
अवधिदर्शन, अवधिज्ञान, केवलदर्शन, केवलज्ञान, मनःपर्यवज्ञान-ये अतीन्द्रिय चेतना के आयाम जब खुलते हैं, चित्त समाहित हो जाता है। सूक्ष्म सत्य जब दिखाई देने लगते हैं, सारी असमाधियां दूर हो जाती हैं, चित्त की उलझनें मिट जाती हैं। जब मनःपर्यवज्ञान होता है, दूसरे के चित्त को जानने की क्षमता बढ़ जाती है। दूसरे के मन को वैसे पढ़ सकता है जैसे किसी पने को पढ़ रहा हो, तब असमाधि दूर हो जाती है, उलझनें दूर हो जाती हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन होता है तब कोई असमाधि शेष रहती ही नहीं और जब समाधि-मरण होता है तब चित्त की असमाधि मिट जाती है।
अनायास चित्त में समाधि घटित होने के ये दस सूत्र हैं। हम निष्कर्ष की भाषा में कह सकते हैं, सूक्ष्म सत्य प्रकट होते हैं या सूक्ष्म चेतना प्रकट होती है तो हमारी उलझनें मिट जाती हैं। हम क्या करें?
समाधि के दो रूप हैं-एक अभ्यासजन्य समाधि और एक अनायास घटित होने वाली समाधि । अनायास समाधि जीवन में घटित हो तो बहुत अच्छी बात है। यदि न हो तो हमारे सामने एक उपाय रहता है अभ्यास का। कवि दो प्रकार के माने जाते हैं-नैसर्गिक कवि और अभ्यास से होने वाले कवि। दार्शनिक भी दो प्रकार के माने जाते हैं। सम्यक् दर्शन भी दो प्रकार का माना जाता है-निसर्ग से होने वाला सम्यक् दर्शन और अभ्यास से होने वाला सम्यक् दर्शन। निसर्ग की बात हमारे अधीन नहीं है, वह नियति है। यदि हमने ऐसा कोई पुरुषार्थ
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