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१८२ अप्पाणं सरणं गच्छामि
है, आंखें फट रही हैं। सारे दिन शिकायतें और फिर लोग दौड़ेंगे-डॉक्टरों को बुलाओ, डॉक्टरों को बुलाओ। इतनी जल्दबाजी से काम नहीं होता। शक्ति को झेलने की क्षमता चाहिए। शिष्य आया, बोला-महाराज! उपदेश दें। गुरु बड़े अनुभवी थे, पूछा-कब करोगे? अभी नहीं करूंगा, करूंगा तो बाद में। गुरु बोले-'जब करो तब आना। लोग करना नहीं चाहते, उपदेश चाहते हैं। करना नहीं चाहते, आशीर्वाद चाहते हैं। यह चाहते हैं कि सिद्धि मिल जाए, कुछ करना न पड़े। मैं इसमें बिलकुल विश्वास नहीं करता। सबसे बड़ा आशीर्वाद होता है अपना अभ्यास, अपना पुरुषार्थ, अपना पराक्रम। सबसे बड़ा उपदेश होता है-अभ्यास। स्वयं शिविर में आने वालों ने अनुभव किया कि जब नहीं आए थे तब नहीं पता था कि योग से क्या होता है? दस दिनों के अभ्यास के बाद आज उनकी क्या स्थिति बन गई। वे कल्पना ही नहीं कर सकते थे कि ऐसा हो सकता है। दस दिनों का अभ्यास किया, पूरा अभ्यास किया और आज उनका सारा क्रम बदल गया। कितने अनुभव हो गए। शायद जीवन में कभी कल्पना नहीं की थी कि ऐसे अनुभव होंगे। यह सारा होता है एक क्रम के द्वारा। क्रम से चलें। चरैवेति चरैवेति
साधना के बड़े परिणाम हैं तो साधना में बड़े खतरे भी हैं। समाधि के बहुत परिणाम हैं तो समाधि के बहुत खतरे भी हैं। हम एक निश्चित अभ्यास से गुजरें, अपनी शक्ति को जगाएं। शरीर-प्रेक्षा, चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा, दीर्घश्वास-प्रेक्षा-ये सारे इसलिए हैं कि नाड़ी-संस्थान की क्षमता बढ़ जाए। उनकी मलिनता दूर हो जाए, उनमें निर्मलता आ जाए, झेलने की क्षमता आ जाए। शक्ति के अवतरण को झेल सकें और अनुभवों का लाभ उठा सकें, इसलिए सारा-का-सारा अभ्यास करना आवश्यक है और यह अभ्यास नियमित रूप से चलता रहता है तो आप निश्चित मानें, एक दिन उस बिन्दु पर अवश्य पहुंचा जा सकता है जो अतीन्द्रिय ज्ञान का चरम-बिन्दु है, जो परम समाधि का बिन्दु है, वीतरागता का बिन्दु है। वहां सारा मोह समाप्त होता है । ज्ञानावरण समाप्त, दर्शनावरण समाप्त, मोह समाप्त, सारी मूर्छाएं समाप्त, सारे विघ्न समाप्त। सभी शेष हो जाते हैं, कुछ भी बाकी नहीं बचता। यह बिन्दु निश्चित आता है। आज तक जो अवतार, तीर्थंकर, महापुरुष हुए हैं और उस बिन्दु तक पहुंचे हैं वे अपनी साधना के द्वारा पहुंचे हैं। मैं भी पहुंच सकता हूं, आप भी पहुंच सकते हैं, पर पहुंच वही सकता है जो साधना को निरन्तर चालू रखता है। यह तो नहीं होगा कि दस दिन अभ्यास किया और फिर साधना को छोड़ दिया, वह कभी नहीं पहुंच पाएगा। पहुंचने का रास्ता है सतत अभ्यास । हमारा अभ्यास निरंतर चलता रहे। उपनिषद् का वाक्य है--चरैवेति चरैवेति । हम चलते
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