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समाधि और प्रज्ञा १७६
भोगता है और जो व्यक्ति समाधि की साधना करता है वह पदार्थ को भोगता है। एक आदमी रोटी को खाता है, दूसरे आदमी को रोटी खाती है। कितना बड़ा अन्तर है? रोटी तो वही खा सकता है जिसने समाधि की साधना की है। जिसने समाधि की साधना नहीं की वह रोटी को नहीं खा सकता, रोटी उसे खाने लग जाती है। पदार्थ को भोगने के लिए पूरी शक्ति चाहिए। अन्यथा आदमी पदार्थ को नहीं भोग सकता, पदार्थ उसे भोगने लग जाता है। भोगा न भुक्ताः , वयमेव भुक्ता:-हमने भोगों को नहीं भोगा, भोगों ने हमें भोग लिया। कालो न यातो, वयमेव याता:-काल नहीं बीता, हम ही बीत गए। यह स्थिति असमाधि की अवस्था में बनती है।
संन्यासी राजा के निमन्त्रण पर महल में चला गया। कुछ देर रहा और जाने की बात नहीं हुई। राजा ने सोचा-मैं तो एक अतिथि के तौर पर लाया था, दो-चार दिन रहेगा पर जम गया यहां आकर । जाता ही नहीं है। जाने का नाम ही नहीं लेता। आखिर राजा बोला-महाराज! जंगल में चलें। बहुत दिन हो गए बैठे-बैठे, जंगल-यात्रा करें, आनन्द मिलेगा। संन्यासी उठ खड़ा हुआ। चल दिया। जाकर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। राजा बोला-'एक बात पूछना चाहता हूं। मैं भी महल में रहता हूं और आप भी मेरे महल में रहे और लगता ऐसा था मुझे कि आप शायद वहीं रहना चाहते थे। रह गए, तो मुझमें और आपमें क्या अन्तर हुआ? संन्यासी मुसकराया और बोला-और कोई अन्तर नहीं है। अन्तर इतना ही है कि मेरे मन में महल नहीं रहा, मैं महल में रहा। तुम्हारे मन में महल रहता है, तुम महल में नहीं रहते। यही अन्तर है।
जिस व्यक्ति में लालच है, लोभ है, भोग की आकांक्षा है उसके दिमाग में पदार्थ रहता है। वह पदार्थ का भोग कभी नहीं कर सकता। उसे पता ही नहीं चलता। इतनी मूर्छा के साथ भोग करता है कि पदार्थ का उसे पता ही नहीं रहता कि मैं क्या कर रहा हूं, क्या खा रहा हूं? किन्तु जब लालसा चली जाती है, तृष्णा टूट जाती है, आकांक्षा का धागा टूट जाता है तो फिर वह महल में रह सकता है, उसके दिमाग में महल नहीं रहता। समाधि की घटना जैसे-जैसे घटित होती है, दिमाग में पदार्थ नहीं रहते, दिमाग से निकल जाते हैं। फिर पदार्थ पदार्थ की जगह हैं, दिमाग दिमाग की जगह। फिर तो पदार्थ को वह भोग सकता है, काम में ले सकता है, उनका उपयेग कर सकता है, किन्तु दिमाग में फिर उनके लिए कोई स्थान नहीं रहता। एक बहुत बड़ा परिवर्तन होता है समाधि के द्वारा । जीवन का सारा परिवर्तन हो जाता है। हमारी आज की सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि पदार्थ हमारे मस्तिष्क पर, मन पर छाये हुए हैं। वे हमारे स्वामी बने हुए हैं। हम उनके गुलाम बन गए हैं।
उस जमाने की बात है, गुलामी की प्रथा प्रचलित थी। एक दिन गुलाम
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