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४६ अप्पाणं सरणं गच्छामि
स्थिति में रहना सीखें। हमारी साधना का यही प्रयोजन है।
ज्ञाता-द्रष्टाभाव का जितना अधिक विकास होगा, समता का जितना अधिक विकास होगा, राग-द्वेष से परे रहने का जितना अधिक विकास होगा, उतना ही विकास अमन की स्थिति का होगा। जब व्यक्ति अमन की स्थिति में जाता है तब दृष्टि में परिवर्तन होना प्रारंभ हो जाता है। हम एक आंख से प्रियता का दर्शन करते हैं और दूसरी आंख से अप्रियता का दर्शन करते हैं। हमारा समूचा जीवन प्रियता और अप्रियता को देखने में बीत जाता है। इसके अतिरिक्त आंख के सामने कोई दर्शन नहीं है। प्रियता और अप्रियता से परे का कोई दर्शन प्राप्त नहीं है। उसे देखने के लिए हमें तीसरी आंख चाहिए। इस तृतीय नेत्र के द्वारा हम प्रियता और अप्रियता से हटकर पदार्थ को केवल पदार्थ की दृष्टि से और यथार्थ को केवल यथार्थ की दृष्टि से देख सकें, सत्य को केवल सत्य की दृष्टि से देख सकें। इच्छा, आकांक्षा, संकल्प-पूरी यात्रा ___ बदलने की चाह होती है, किन्तु जब तक चाह संकल्प तक नहीं पहुंचती, तब तक बदलाव नहीं आता। चाह को संकल्प तक पहुंचने में लम्बी यात्रा करनी होती है। पहले इच्छा बने, इच्छा से आकांक्षा, आकांक्षा से संकल्प और संकल्प से भावना बने, तब यात्रा पूरी होती है। प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा हो सकती है कि वह नैतिक बने, चरित्र-संपन्न बने। किन्तु इच्छा को आकांक्षा तक ले जाने में लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। नीतिशास्त्र में इस विषय पर बहुत विचार किया गया है। पाश्चात्य विचारकों का कथन है कि इच्छा और आकांक्षा की दूरी को मिटाना बहुत आवश्यक है।
- भरत चक्रवर्ती का सेनापति था सुषेण। उसने एक दिन आकर कहा-'सम्राट् एक चक्ररत्न का प्रादुर्भाव हुआ है, किन्तु वह आयुधशाला में प्रवेश नहीं कर रहा है। उसकी यह मर्यादा है कि जब तक सारे राजा आपके अधीन नहीं हो जाते, तब तक वह प्रवेश नहीं कर सकता। लगता है, कोई राजा आपको अभी सम्राट मानने के लिए तैयार नहीं है।' चक्रवर्ती भरत ने सोचा। उसे लगा-भाई बाहुबली एक ऐसा नरेश है जो मेरा आधिपत्य स्वीकार नहीं कर रहा है। मैं उसे पराजित करूं जिससे कि चक्ररत्न आयुधशाला में प्रवेश कर सके। भरत के मन में इच्छा हुई। वह आकांक्षा तक पहुंचे, इससे पूर्व ही भरत के मन में आया-बाहुबली छोटा भाई है। भाई पर कैसे आक्रमण करूं? लोग क्या कहेंगे? मेरी प्रतिष्ठा क्या रहेगी? इच्छाओं के बीच संघर्ष चलता रहा। फिर उसने सोचा-भाई है तो क्या? प्रश्न भाई का नहीं है। प्रश्न है साम्राज्य का। मुझे उसी के आधार पर सोचना है। मुझे कर्तव्य की दृष्टि से जो करना है वह करना है। भावना जागी और आक्रमण की इच्छा विजयी हो गयी। स्नेह
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