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६६ अप्पाणं सरणं गच्छामि
फिर भी उन्होंने ऐसे गूढ़ सत्यों का उद्घाटन किया, जिसे देखकर आश्चर्य होता है और एक प्रश्न उभरता है कि यह कैसे हुआ? हम तर्क से सोचते हैं तब नया तर्क उत्पन्न होता है। हम इस बात को भूल जाते हैं कि आज की दुनिया जिन तत्त्वों को मानकर चल रही है, वे तत्त्व ऐसे व्यक्तियों द्वारा उद्घाटित हुए हैं जो पढ़े-लिखे नहीं थे । किन्तु आज उन्हें बड़े-बड़े तार्किक, बौद्धिक और वैज्ञानिक लोग पढ़ते हैं । ज्ञानी को सब लोग पढ़ते हैं । ज्ञानी किसी को नहीं पढ़ता। वह केवल अपने आपको पढ़ता है। जो अपने आपको पढ़ता है, उसे दूसरों को पढ़ने की जरूरत नहीं होती । ज्ञानी स्वयंबुद्ध होता है । महावीर ज्ञानी थे । महावीर स्वयंबुद्ध थे । माता-पिता ने उन्हें अध्यापक के पास पढ़ने भेजा । अध्यापक पढ़ाने लगा। उसने अनुभव किया कि मैं जो पढ़ाना चाहता हूं वह तो महावीर पहले से ही जानते हैं। मैं जिसे पढ़ा रहा हूं वह मेरे से अधिक ज्ञानी है । अध्यापक आसन से नीचे उतरा और सामने आकर बैठ गया । महावीर ऊपर बैठ गए।
आज तुलसी, सूरदास, कबीर, मीरा, आचार्य भिक्षु, गांधी आदि व्यक्तियों पर सैकड़ों विद्वान् काम कर रहे हैं। उनकी कृतियों का मूल्यांकन कर रहे हैं। अनेक उपाधियां ले रहे हैं । अनेक ग्रंथ लिखे जा रहे हैं। बहुत बड़ा आश्चर्य है । अनपढ़ लोगों पर पढ़े-लिखे लोग काम कर रहे हैं।
अन्तर्दृष्टि का अवदान
हम इस सचाई को समझ लें कि जब तक हमारी अन्तर्दृष्टि नहीं जाग जाती, तब तक ज्ञान नहीं होता । ज्ञानी बने बिना हम उस आनन्द को उपलब्ध नहीं हो सकते जो वास्तविक है । आज तक दुनिया का जितना विकास हुआ है, वह अन्तर्ज्ञानी व्यक्तियों द्वारा हुआ है । उन व्यक्तियों द्वारा हुआ है जिन्हें अन्तदृष्टि प्राप्त हो गयी थी । बड़े से बड़ा आविष्कार अन्तर्दृष्टि के क्षणों में हुआ है, मन की निर्विकल्प दशा में हुआ है, ध्यान की अवस्था में हुआ है । मन विकल्पों से भरा हो और कोई नयी बात सूझी हो, यह संभव नहीं है । जब घड़ा खाली होता है तब पानी से उसे भरा जा सकता है । जब घड़ा पहले ही भरा होता है तब उसमें कुछ भी नहीं समा सकता। जब तक मन और मस्तिष्क पूरा खाली नहीं होता, तब तक कोई बड़ी घटना घटित नहीं होती, विशिष्ट ज्ञान अवतरित नहीं होता । आइंस्टीन से पूछा गया - 'आपको सापेक्षता के सिद्धान्त का आभास कब और कैसे हुआ ?' आइंस्टीन बोले- 'मैं नहीं जानता कि यह कैसे हुआ । मुझे ज्ञात नहीं है । मैंने कभी सोचा भी नहीं था । किन्तु यह घटना घटित हो गयी। मैं घूम रहा था। अचानक यह विचार मस्तिष्क में उतरी। मैं घर गया और उसे लिपिबद्ध कर डाला ।' यह है अन्तर्दृष्टि का अवदान । जितना अक्दान अन्तर्दृष्टि का होता है उतना बुद्धि का नहीं होता । अन्तर्दृष्टि के साथ आत्मा
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