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समाधि : साध्य या साधन १४५
के आदि बिन्दुओं का विकास किये बिना जीवन में समाधि कभी नहीं हो सकती। जो लोग सम्भोग से समाधि में विश्वास करते हैं, हम उन्हें भ्रान्ति में मानते हैं। हम उन्हें सही नहीं मानते। उस रास्ते को ही गलत मानते हैं। वह रास्ता मनुष्य को और अधिक पदार्थों की ओर, विलास की ओर, भोग की ओर ले जाने वाला और अतृप्ति को बढ़ाने वाला है। अतृप्ति के द्वारा कभी अतृप्ति को नहीं मिटाया जा सकता। घी के द्वारा आग को प्रदीप्त किया जा सकता है, बुझाया नहीं जा सकता। हम समता में विश्वास करते हैं, संयम में विश्वास करते हैं। हमने समता का अनुभव किया है, संयम का अनुभव किया है। जिस व्यक्ति ने संयम का अनुभव किया, जिस व्यक्ति ने जीवन में समता का अनुभव किया, संयम और समता के आदि-बिन्दुओं का थोड़ा भी स्पर्श किया, वह स्पर्श करता है इन पांच महाव्रतों का, पांच अणुव्रतों का। एक मुनि और अधिक स्पर्श करता है और वह स्पर्श जैसे-जैसे बढ़ता है, समाधि अपने आप विकसित होती चली जाती है। पदार्थकी यात्रा से अपदार्थ की ओर नहीं जा रहे हैं किन्तु अपदार्थ की यात्रा में आने वाले पदार्थ को तटस्थदृष्टि से, समदृष्टि से देखते हुए यात्रा चला रहे हैं। एक आदमी यात्रा शुरू करता है। रास्ते में पेड़ आते हैं। रास्ते में घाटियां भी आती हैं, पहाड़ भी आते हैं, ऊबड़-खाबड़ जमीनें भी आती हैं। सुगन्ध भी आती है, दुर्गन्ध भी आती है। भले भी आते हैं, बुरे भी आते हैं। सब आते हैं। चलने वाला चलता जाता है। ठीक हमारी वही यात्रा है। एक वह भी आदमी होता है कि जो भी मिला उसी से उलझ गया। वहां यात्रा थोड़ी कठिन बन जाती है। हम एक निश्चित लक्ष्य के साथ चलें और बीच में जितने आने वाले हैं, उनको देखते जायें, समझते जायें, पर उलझें नहीं। हम तटस्थ होकर चलते चलें। जब हम निश्चित लक्ष्य की ओर सम और तटस्थ होकर चलेंगे तो पहुंच जायेंगे और यदि बीच में उलझ जायेंगे तो भटक जायेंगे।
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