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प्रेक्षा एक प्रयोग है ज्ञानी होने का ६५
प्राप्त थी। वे तर्कजाल से मुक्त और बुद्धि की माया से शून्य थे। इन्द्रभूति तर्क
और बौद्धिकता में प्रखर थे। उनके सामने महावीर कभी नहीं टिक पाते, किन्तु महावीर ज्ञानी थे। पंडित ज्ञानी को नहीं हरा सकता
पंडित ज्ञानी को परास्त नहीं कर सकता। इतिहास साक्षी है कि पंडित सदा ज्ञानी के पास जाते रहे हैं और परास्त होते रहे हैं। उपाध्याय यशोविजयजी बहुत गंभीर विद्वान् थे। उनको लघु हरिभद्र कहा जाता था। पंडित सुखलालजी कहते थे कि हरिभद्र के पश्चात् ऐसा विद्वान् एक भी नहीं हुआ। उस समय आनन्दघनजी थे। वे ज्ञानी और साधक थे। उपाध्याय यशोविजयजी आनन्दघनजी के पास आए। उनको देखते ही वे श्रद्धा से झुक गए। उनका मस्तक ज्ञानी के चरणों में नत हो गया। आज तक के समूचे संत-साहित्य और अध्यात्म-चेतना के इतिहास में यह घटना कभी नहीं घटी कि किसी पंडित ने संत को परास्त किया हो, किसी विद्वान् ने ज्ञानी को हराया हो। फिर चाहे कबीर हों, सूरदास हों, आनन्दघन हों, आचार्य भिक्षु हों या और कोई। पंडित ज्ञानी को परास्त नहीं कर सकता। एक बार की घटना है। आचार्य तुलसी भिवानी में थे। एक व्यक्ति आया। उसने कहा-'आचार्यजी! मैं चर्चा करना चाहता हूं, शास्त्रार्थ करना चाहता हूं।' आचार्यश्री ने कहा-'शास्त्रार्थ की बातें बीते युग की बातें बन गयी हैं। आज उनका कोई प्रयोजन नहीं रहा। वह एक जमाना था। उसमें मल्ल-कुश्तियां होती थीं। अखाड़े होते थे। आज यह जमाना नहीं है। आखिर तुम मेरे साथ शास्त्रार्थ करना क्यों चाहते हो?' उसने कहा-'आपको परास्त करना चाहता हूं।' आचार्यश्री ने मुस्कराकर कहा-'अरे भाई! मुझे परास्त कर तुम क्या करोगे? मैं तो एक चींटी से भी परास्त हूं। एक चींटी भी सामने आती है तो रास्ता बदल देता हूं। वह भी मुझे परास्त कर देती है। तुम परास्त कर क्या करोगे? यदि तुम्हारी प्रबल इच्छा है कि तुम मुझे परास्त करो, तो शास्त्रार्थ करने का यह समारंभ क्यों? तुम्हारा भी समय लगेगा और मेरा भी समय लगेगा। तुमको भी बोलना पड़ेगा और मुझको भी बोलना पड़ेगा। मुझे हराना ही तुम्हारा उद्देय है तो मान लो कि मैं हार गया और तुम जीत गए।' इतना सुनते ही वह व्यक्ति पानी-पानी हो गया। वह आचार्यश्री के चरणों में लुट गया और उनका उपासक बन गया। दूसरी बार आचार्यश्री भिवानी गए तब वही व्यक्ति स्वागत समिति का अध्यक्ष बनकर आचार्यश्री का हार्दिक स्वागत करने में अग्रणी रहा। ज्ञानी वह, जो स्वयं को पढ़े
हम ज्ञान में विश्वास करें। ज्ञानी वह होता है जिसकी अन्तर्दृष्टि जाग जाती है। आवरण हट जाता है। आचार्य भिक्षु संस्कृत या प्राकृत के विद्वान् नहीं थे।
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