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१२४ अप्पाणं सरणं गच्छामि
मनश्चेतना और तीसरी मंजिल है बौद्धिक-चेतना। हमें सचाई तक पहुंचना है, धर्म या आन्तरिक संपदा तक पहुंचना है तो इन तीनों भूमिकाओं से परे जाकर चौथी भूमिका को हस्तगत करना होगा। वह चौथी भूमिका है-अनुभवचेतना।
आज धर्म इसीलिए निष्प्राण-सा हो रहा है कि उसकी आराधना अनुभव-चेतना के स्तर पर नहीं की जा रही है। वह केवल मनश्चेतना और बौद्धिक-चेतना के आधार पर की जा रही है। तर्क तर्क को उत्पन्न करता है। वह समस्या पैदा करता है, कभी समाधान नहीं देता।
जब अनुभव की चेतना जागती है तब बुद्धि, जो कभी बहुत शक्तिशाली लग रही थी, शक्तिहीन लगने लगती है। मन भी कमजोर लगने लगता है। फिर इन्द्रियों, मन और बुद्धि द्वारा जो प्राप्त होता है उसमें कुछ सार नहीं लगता। अनुभव की चेतना नहीं जागती तब आदमी आंख, कान, जीभ द्वारा प्राप्त संवेदनों को ही सारभूत मानता है। उसकी दृढ़ धारण बन जाती है कि इन्द्रियों द्वारा जो उपलब्ध होता है वही सार है। मन के द्वारा जो उपलब्ध होता है वही सार है। जब आदमी इन सब भूमिकाओं को पार कर ऊपर चढ़ जाता है तब उसे लगता है कि जिसे वह सार मान रहा था, वे वास्तव में सारहीन हैं और जो सार है वह भीतर में पड़ा है। यह जागरण दो प्रकार से हो सकता है-स्वभाव से या अभ्यास से-'निसर्गाद् वा अधिगमाद्वा।' अचानक भी ऐसी घटना घटित हो सकती है, अचानक कोई संवेग दर्शन हो सकता है कि व्यक्ति में अनुभव की चेतना जागृत हो जाती है। अभ्यास के द्वारा भी इसका जागरण किया जा सकता है। किसी प्रबुद्ध व्यक्ति से सुनकर या स्वयं में विशिष्ट ज्ञान की उपलब्धि होने पर भी यह जागरण हो सकता है। जब यह जागरण होता है तब बाह्य सीमाओं का अतिक्रमण कर साधक आन्तरिक सीमा में प्रवेश पा जाता है। ___आदमी अनुभव की मंजिल पर चढ़ नहीं पाता और कहता है इन्द्रियों में कोई सार नहीं है। इन्द्रियां हंसती हैं कि आदमी कितना पागल है। वह हमें भोगता जा रहा है और कहता भी जा रहा है कि इनमें कोई सार नहीं है। आदमी कहता है-मन भटकाता है, मन दुःख देता है। मन सोचता है-कितना मूर्ख है आदमी कि वह मुझे भोगता भी जा रहा है और कोसता भी जा रहा है।
लोग पूछते हैं-हम किस मन को चंचल कहें और किस मन को स्थिर कहें? किस मन के द्वारा हम दुःख भोग रहे हैं और किस मन के द्वारा हम दुःख को काट रहे हैं? क्या मन भी दो हैं? एक दुःख देने वाला और दूसरा दुःख काटने वाला। मन सोचता है-मेरी छाया में पलने-पुसने वाला आदमी मेरी छाया को ही बुरा-भला कह रहा है। बुद्धि भी यही सोचती है कि आदमी मेरे से खेल खेल रहा है और मुझे ही गालियां दे रहा है।
जो व्यक्ति इन्द्रिय-चेतना, मनश्चेतना और बौद्धिक चेतना की परिधि में
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