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१५. संयम और समाधि
समाधि की एक परिभाषा है - जब ध्याता, ध्येय और ध्यान का भेद नहीं रहता तब समाधि घटित होती है। जब तक ध्याता अलग, ध्येय अलग और ध्यान अलग होता है, तब तक समाधि नहीं होती । यह परिभाषा अच्छी है । परन्तु आज के संदर्भ में लगता है कि यह अनुभवहीन परिभाषा है। कुछ समझ में नहीं आता कि समाधि क्या है? जब अनुभव समाप्त हो जाता है, कोरा शब्द रह जाता है तब हर वस्तु का मूल्य कम हो जाता है । समाधि का मूल्य भी कम हो गया, क्योंकि यह परिभाषा निर्जीव और प्राणहीन बन गई, अनुभवहीन बन गई । इसी प्रकार धर्म का उपदेश भी अनुभवहीन हो गया। धर्म का उपदेष्टा यदि अनुभव की वाणी में बोलता है तब उसकी वाणी प्राणवान् और सार्थक होती है। यदि बोलने वाला स्वयं अनुभवशून्य होता है तो उसके शब्द प्रपंचमात्र रह जाते हैं, शब्दों का मायाजाल बिछता है । कोई भी व्यक्ति उसके उपदेश से लाभान्वित नहीं हो सकता ।
एक प्रबुद्ध व्यक्ति धर्म-स्थान में गया । प्रवचन सुना । घर आकर उसने प्रवचनकार को पत्र लिखा- 'मैंने आज आपका अनुभवहीन प्रवचन सुना । आपके प्रवचन का एक-एक शब्द मेरी पुस्तक में है। मैं वह पुस्तक आपके चरणों में भेंटस्वरूप भेज रहा हूं।' उसने पत्र के साथ पुस्तक भेज दी । प्रवचनकार ने पत्र पढ़ा । पुस्तक खोली । वह था शब्दकोश । वह आश्चर्यचकित रह गया । लज्जित भी हुआ ।
यह एक तीखा व्यंग्य है। जब अनुभव कुछ भी नहीं होता और केवल वाणी दोहराई जाती है, केवल शाब्दिक घटाटोप होता है, तो वे सारे शब्द शब्दकोश में मिल जाते हैं, जीवन में उनका अवतरण कभी नहीं होता । न प्रवचनकार के जीवन में वे शब्द मिलते हैं और न सुनने वालों के जीवन में वे शब्द मिलते हैं। प्रवचनकार शब्दकोश को दोहरा देता है और श्रोता शब्दकोश को सुन लेता है । मूल प्रश्न है अनुभव का ।
समाधि है भीतर में जागना
समाधि का अर्थ है - भीतर में जागना । जो व्यक्ति भीतर में जागना शुरू कर देता है, वह समाधि को उपलब्ध होता है । जो व्यक्ति भीतर में जागना शुरू नहीं करता, जो केवल बाहर ही बाहर जागता है, वह कभी समाधि को उपलब्ध नहीं होता ।
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