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१०० अप्पाणं सरणं गच्छामि
होती। वह समाधि तक जा नहीं पाता।
जिस व्यक्ति ने यह साक्षात् अनुभव कर लिया कि उसका अस्तित्व केवल वर्तमान के शरीर या जीवन का अस्तित्व नहीं है, उसके अस्तित्व की जड़ें इतने गहरे में हैं कि वे दृश्य नहीं हैं। जिसने आत्मा के अमरत्व का अनुभव कर लिया, वह व्यक्ति समाधि के प्रथम सोपान का आरोहण कर लेता है। 'मैं इस शरीर की निष्पत्ति नहीं हूं, 'आत्मा अमर है' -इस आस्था का निर्माण समाधि का पहला सूत्र है। जिस व्यक्ति को आत्मा की त्रैकालिकता और त्रिकालाबाधित सत्य का अनुभव हो जाता है, जो यह साक्षात् देख लेता है कि उसका अस्तित्व अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में होगा, उसके मन में जिज्ञासा का एक अंकुर प्रस्फुटित होता है कि मेरा स्वभाव क्या है? जिसका अस्तित्व केवल वर्तमान से संबद्ध है, जो त्रैकालिक नहीं है, वहां स्वभाव का प्रश्न नहीं उठता। उसका कोई स्थिर स्वभाव नहीं होता। उसका स्वभाव होता है पर सतही।
भारत के प्राचीन वैज्ञानिकों ने स्वभाव का वर्गीकरण करते हुए कहा है-क्रोध आदमी का स्वभाव है। लालच और उत्तेजना आदमी का स्वभाव है। मानसिक खिन्नता आदमी का स्वभाव है। जिस व्यक्ति में पित्त की प्रधानता होती है, वह क्रोधी होता है। जिस व्यक्ति में कफ की प्रधानता होती है, वह लालची होता है और जिस व्यक्ति में वायु की प्रधानता होती है, उसमें अवसाद होता है, मानसिक खिन्नता होती है। वह बातूनी और प्रवाहपाती होता है।
यह वर्गीकरण शरीर के गुण-धर्मों के आधार पर किया गया है। वात, पित्त और कफ के आधार पर मनुष्य के स्वभाव का निर्माण होता है। चेतना को वर्तमान की सीमा में स्वीकार करने वाले व्यक्ति के मन में इससे आगे स्वभाव की कोई भी जिज्ञासा नहीं होती, उसका सिद्धान्त भी नहीं होता और अपेक्षा भी नहीं होती। किन्तु हमारा अस्तित्व जब त्रैकालिक होता है तो स्वभाव इस वर्तमान शरीर की सीमा में बंधता नहीं, केवल वात, पित्त और कफ की सीमा में नहीं बंधता। यह एक सचाई है कि केवल शरीर में होने वाले दोषों के आधार पर स्वभाव की व्याख्या नहीं की जा सकती। उसकी व्याख्या के लिए और गहरे में उतरना आवश्यक है। इस गहराई में समाधि के दूसरे आधार की प्राप्ति होती
समाधि का दूसरा आधार-सूत्र है-आनन्द मेरा स्वभाव है। वह आनन्द जो सहज और वस्तु-निरपेक्ष है। वह आनन्द जिसके लिए पदार्थ अपेक्षित नहीं। वह आनन्द जिसके लिए मान-सम्मान अपेक्षित नहीं। वह आनन्द जिसके लिए पूजा-प्रतिष्ठा अपेक्षित नहीं। वह असीम आनन्द मेरा स्वभाव है। दुःख मेरा स्वभाव नहीं है, आनन्द मेरा स्वभाव है। शक्तिहीनता मेरा स्वभाव नहीं है, शक्ति-संपन्नता मेरा स्वभाव है। अज्ञान मेरा स्वभाव नहीं है, ज्ञान मेरा स्वभाव
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