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प्रेक्षा एक प्रयोग है ज्ञानी होने का ६७
की पूरी सत्ता जुड़ी होती है, अनन्त चैतन्य जुड़ा होता है, इसलिए उसका अवदान बहुत बड़ा होता है, सूक्ष्म होता है। बुद्धि की अपनी एक सीमा है। उसका अवदान बड़ा नहीं हो सकता। वह छोटा ही होगा, सीमित होगा । उसका सीधा संबंध विराट् चैतन्य के साथ जुड़ा हुआ नहीं होता ।
अन्तर्दृष्टि को जगाने का माध्यम है- प्रेक्षा ध्यान । हम केवल देखें । विकल्प न करें । न अतीत में उलझें, न भविष्य में उलझें, केवल वर्तमान में रहें । वर्तमान में रहने वाला व्यक्ति, केवल दर्शन-शक्ति का उपयोग करने वाला व्यक्ति अपनी सत्ता के साथ जुड़ जाता है और जब वह इस सत्ता से जुड़ता है तब अंतर्दृष्टि स्वतः जाग जाती है । यह आज्ञाचक्र या दर्शन-केन्द्र जो दो भृकुटियों के बीच स्थित है, अतीन्द्रिय क्षमताओं और चेतनाओं का स्रोत है। यह एक ऐसा स्रोत है जिसका प्रवाह अविच्छिन्न रहता है । यह कुंड का पानी नहीं है । यह कुएं का स्रोत है, जहां प्रतिदिन नया पानी आता है। कुंड का पानी सीमित होता है । उसमें जितना है उतना ही निकाला जा सकता है। फिर भी कुछ शेष बच ही जाता है। कुएं का स्रोत असीम है। उससे पानी निकालते ही चले जाओ । बुद्धि है कुंड का पानी
बुद्धि से प्राप्त ज्ञान कुंड का पानी है। स्मृति के कोष्ठों में जितना डालो, उतना मात्र निकाल लो। कम्प्यूटर से अधिक उसका मूल्य नहीं हो सकता। यदि बुद्धि ही हमारे ज्ञान की सीमा हो तो मैं इस भाषा में कहूंगा कि आत्मा का अस्तित्व नहीं हो सकता । मनुष्य एक कम्प्यूटर से अधिक नहीं हो सकता। वही सीमा होगी। इतना स्पष्ट है कि कम्प्यूटर में मनुष्य ने एक कार्यक्रम नियोजित किया है और यह नियोजन प्रकृति के द्वारा हो रहा है और कोई अन्तर नहीं है । यह अंतर तब आता है तब अन्तर्दृष्टि जागती है। कम्प्यूटर के पास अन्तर्दृष्टि नहीं होती । मनुष्य को अन्तर्दृष्टि उपलब्ध है। उसके पीछे एक महान् स्रोत है । जब यह स्रोत खुलता है तब विकास प्रारम्भ होता है । हमारे शरीर में ऊपर, नीचे और बीच में स्रोत हैं । जब ये स्रोत खुलते हैं तब सारी स्थितियां बनती हैं। हम इन स्रोतों को उद्घाटित करने का प्रयत्न करें, अपनी अन्तर्दृष्टि जगाएं, आन्तरिक चेतना की शक्ति को विकसित करें। मनोविज्ञान ने अचेतन मन की खोज कर एक नयी क्रांति का सूत्रपात किया । यदि मनोविज्ञान केवल स्थूल मस्तिष्क, जागृत मस्तिष्क तक ही उलझा रहता तो मनोविज्ञान के क्षेत्र में इतनी क्रांति नहीं होती। उसने मन के तीन स्तरों की खोज की-चेतन मन, अवचेतन मन और अचेतन मन। इससे सचमुच अज्ञात का द्वार खुल गया। ज्ञात और अज्ञात के बीच जो खाई थी, वह पट गयी। उसने ज्ञात जगत् से परे जाकर अज्ञात जगत् को समझने की चाबी मनुष्य के हाथ में सौंप दी।
हमारा ज्ञात जगत् बहुत छोटा है, किन्तु मनुष्य अपने अहंकार के कारण
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