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४४ अप्पाणं सरणं गच्छामि
है, सूक्ष्म है। हम उसे पाना चाहते हैं । वह दीखती नहीं । हम एक मॉडल बनाते हैं, प्रारूप तैयार करते हैं और उसके आधार पर आत्मा को पाना - जानना चाहते हैं । हम जो होना चाहते हैं, 'अर्हम्' हमारा प्रतीक है, प्रारूप है । हम इसको सामने रखकर चलें। एक दिन आत्मा तक पहुंच जाएंगे। हम जो होना चाहते हैं वह हैं - अनन्त - चेतना, अनन्त शक्ति और अनन्त आनन्द के साथ तादात्म्य नहीं, किन्तु अभिव्यक्ति । यह सब हमारे भीतर है। बाहर से कुछ पाना नहीं है । उसकी अभिव्यक्ति मात्र करनी है । उस अभिव्यक्ति की सारी सामग्री हमारे भीतर है । केवल प्रयत्न चाहिए। एक भवन वह होता है जो विविध सामग्री से बनाया जाता है। एक भवन वह होता है जो कांट-छांटकर बनाया जाता है। दक्षिण में स्थित बाहुबली की विशाल प्रतिमा किसी सामग्री से नहीं बनाई गई, किन्तु जो कुछ अतिरिक्त था, उसे काट दिया गया और प्रतिमा उभर आयी । प्रस्तर की प्रतिमा में सामग्री अपेक्षित नहीं होती । जो प्रस्तर अधिक है, उसे काट-छांट दिया जाता है, प्रतिमा अभिव्यक्त हो जाती है । यही बात है आत्मा की प्रतिमा के विषय में । उसको पाने के लिए सामग्री की आवश्यकता नहीं है । जो कुछ विजातीय तत्त्व उससे चिपका हुआ है, उसे हटा देने से आत्मा की प्रतिमा उभर आती है। जो कुछ उसके साथ जुड़ गया है, उसे अलग कर देने से आत्मा उपलब्ध हो जाती है ।
कोsहं कोऽहं का उत्तर
ज्ञेय, हेय और उपादेय - यह त्रिपुटी है । ज्ञेय सब कुछ है। अच्छा हो या बुरा, सब कुछ जानने योग्य है । जानने के बाद दो बातें शेष रहती हैं - हेय और उपादेय । हेय का अर्थ है - छोड़ना । जो कुछ अतिरिक्त है उसे अलग कर देना है। शेष जो बचेगा वह है उपादेय, वह है अपना अस्तित्व । अस्तित्व का प्रश्न बहुत जटिल है । अनन्त काल से आदमी पूछता रहा है- 'कोऽहं, कोऽहं- मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?' ग्रन्थों में इसका उत्तर अप्राप्य है। बुद्धि का व्यवसाय भी इसका उत्तर नहीं दे पाता । तर्क इस प्रश्न को समाहित नहीं कर सकता। यह प्रश्न समाहित हो सकता है केवल विवेक चेतना के जागरण द्वारा । विवेक, कायोत्सर्ग और व्युत्सर्ग- ये तीनों साधन हैं । जैन आचार्यों ने जिसे विवेक - चेतना या विवेक - प्रतिमा कहा है, उसे ही उपनिषद्कारों ने 'नेति नेति' कहा है। विवेक का अर्थ है - छोड़ना, छोड़ते जाना । चलते-चलते जो शेष रहेगा वही है अस्तित्व, वही है 'कोऽहं प्रश्न का उत्तर । ज्ञेय को जानना और हेय को छोड़ना, जो अतिरिक्त है उसे छोड़ना, शेष जो बचे वही 'मैं हूं'। इस प्रक्रिया में निर्मित कुछ नहीं होता, किन्तु जो अभिव्यक्त नहीं था वह अभिव्यक्त हो जाता है। जो आवृत था, वह अनावृत हो जाता है ।
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