________________
प्रेक्षा एक पद्धति है शारीरिक स्वास्थ्य की ४६
या उपदेशों से नहीं होता । वह होता है व्यक्ति के अपने अनुभव से 1
1
आज के व्यक्ति का अनुभव यह है कि पदार्थ से सुख मिलता है, धर्म से कोई सुख नहीं मिलता। धर्म के उपदेशों ने सुख को रख दिया परलोक में और धर्म को रखा वर्तमान जीवन में कितनी दूरी ? धर्म करो। मरने के बाद जलाए जाओगे । परलोक में उत्पन्न होना पड़ेगा। पहले जन्म में जो धर्म किया था, उसका सुख वहां मिलेगा । बहुत बड़ी दूरी पैदा हो गयी, इसलिए धर्म के प्रति वह आकर्षण नहीं रहा । धर्म करते ही यदि धर्म का अनुभव हो जाता है तो आदमी धर्म से कभी दूर नहीं हो सकता। धर्म के अनुभव का माध्यम है- प्रेक्षा-ध्यान। ध्यान में केवल उपदेश नहीं होता। उसमें यह अनुभव कराया जाता है कि पदार्थ से जो सुख प्राप्त नहीं होता वह सुख भीतरी रासायनिक परिवर्तनों के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । विद्युत् प्रवाह के गतिरोधों को मिटाने से, एक दूसरी प्रकार की तरंगों के उत्पन्न करने से विचित्र प्रकार के सुख की अनुभूति होती है । क्रोध, मान आदि की तरंगों को मिटाकर, विकार की तरंगों को नष्ट कर हम ऐसी तरंगें उत्पन्न कर सकते हैं जो परम आनन्द की अनुभूति देती हैं। ये तरंगें भावना के द्वारा पैदा की जा सकती है। भावना, शब्द और विचार-ये तीनों नयी तरंगों को उत्पन्न करने में सहायक होते हैं । व्यक्तित्व को बदलने और पुरानी जटिल आदतों को मिटाने के लिए ये महत्त्वपूर्ण साधन हैं । इसलिए प्रेक्षा ध्यान की पद्धति में भावना, संकल्प शक्ति, मंत्र, विचार - सभी का अवकाश है । उसमें केवल देखने का ही स्थान नहीं है । समय-समय पर इन विभिन्न साधनों का उपयोग किया जाता है। शब्द - संरचना का प्रभाव
'अर्हम्' शब्द बहुत शक्तिशाली माध्यम है । 'र' अग्नि बीज है और 'ह' आकाश बीज है । जिस मंत्र में 'ह' का प्रयोग होता है, वह शक्तिशाली मंत्र होता है । अर्हम् केवल पवित्र मुक्तात्मा का ही प्रतीक नहीं है, किन्तु मंत्र शास्त्रीय दृष्टि से भी यह बहुत शक्तिशाली मंत्र है । शब्द बहुत शक्तिसंपन्न होते हैं । एक शब्द - संरचना सारे व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न कर देती है और एक शब्द-संरचना सारे व्यक्तित्व को शिखर पर चढ़ा देती है । आज के साहित्यकार मानें या न मानें, यह आजमाया हुआ सत्य है कि जिस रचना में दग्धाक्षर आ जाता है, वह रचनाकार नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। एक यथार्थ घटना है । एक कवि नागोर में रहता था । उसने एक रचना की । रचना की समाप्ति में उसने लिखा- 'नागो रमे ।' 'नागो' अलग शब्द और 'रमे' अलग हो गया । उसका आशय तो यह था कि नागोर में उसने यह रचना की है, किन्तु शब्दों को दो भागों में बांट दिया। अब उनका अर्थ हुआ - नागो अर्थात् नग्न और रमे अर्थात् खेलता है । शब्द का असर देखें। कुछ ही दिनों बाद वह रचनाकार पागल हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org