________________
७. प्रेक्षा एक प्रयोग है चिर यौवन का
___ मनुष्य की शाश्वत कामना है-'जीवेम शरदः शतम्-मैं सौ वर्ष तक जीता रहूं।' प्राचीनकाल में जीवन की सामान्य सीमा थी सौ वर्षों की। प्राचीन आचार्यों ने इस सीमा को दस अवस्थाओं में बांटा है। जीवन की दस अवस्थाएं हैं। आदमी जन्म लेता है। बच्चा होता है, युवा बनता है, बूढ़ा होता है और फिर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। बच्चा होना कोई चाहता नहीं। यह चाह का विषय नहीं है। यह प्रश्न नियति का है। तीन अवस्थाएं हैं-बचपन, यौवन और वृद्धत्व। बचपन चाह का विषय नहीं है, बच्चा युवा होना चाहता है। यौवन चाह का विषय है। युवा बूढ़ा बनना नहीं चाहता। वृद्धत्व चाह का विषय नहीं है। बूढ़ा न होने के लिए आदमी ने बहुत प्रयत्न किए हैं। अनेक औषधियों और पद्धतियों का आविष्कार कर यह पूरा प्रयत्न किया गया कि आदमी बूढ़ा न बने । आयुर्वेद ने कायाकला की पद्धति चलायी जिससे कि आदमी चिर युवा रह सके, बूढ़ा भी युवक बन जाए। आदमी बूढ़ा इसलिए होता है कि उसके शरीर की कोशिकाएं नष्ट अधिक होती हैं, नयी कोशिकाओं का निर्माण नहीं होता। शरीरशास्त्रीय दृष्टि से जो आदमी शक्ति का व्यय कम करता है, ऊर्जा को कम खर्च करता है, नयी कोशिकाओं को निर्मित होने का अवकाश देता है, वह जल्दी बूढ़ा नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य सदा युवा रहना चाहता है। प्रेक्षा-ध्यान को हम इस दृष्टि से देखें कि उससे चिर यौवन को सुरक्षित रखा जा सकता है। उसे स्थायी बनाया जा सकता है। आगमकार कहते हैं कि देवता कभी बूढ़े नहीं होते। वे सदा मध्यम वय में ही रहते हैं। तीर्थंकर युवावस्था में ही निर्वाण को प्राप्त होते हैं। संभवतः व्याख्याकारों ने यह मान लिया कि मध्यम आयु में ही तीर्थंकरों को निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। इसका सीधा अर्थ है कि तीर्थंकर कभी बूढ़े नहीं होते। जो सिद्धयोगी होते हैं वे कभी बूढ़े नहीं होते। कोई भी वीतराग व्यक्ति बूढ़ा कैसे होगा? बुढ़ापा लाने वाली सारी स्थितियां वहां समाप्त हो जाती हैं। इसलिए वीतराग, केवली या तीर्थंकर कभी बूढ़े नहीं होते। युवक कौन? बूढ़ा कौन?-एक वैज्ञानिक विश्लेषण
युवक और यौवन की अनेक परिभाषाएं की गयीं। शरीरशास्त्र का कथन है कि मस्तिष्क की कोशिकाएं जब कठोर बन जाती हैं तब आदमी बूढ़ा बनता है। बुढ़ाने का लक्षण है मस्तिष्क की कोशिकाओं का समाप्त हो जाना, उनका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org