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६० अप्पाणं सरणं गच्छामि
को मुख्य मानने की चेतना विकसित होती है । यह सच है कि व्यक्तित्व के निर्माण में परिस्थिति का भी योग है । पर वह है गौण, मुख्य योग नहीं है ।
हम प्रेक्षा ध्यान के अभ्यास से प्रतिस्रोत की चेतना का निर्माण करें, प्रतिस्रोत की चेतना के द्वारा परिस्थितियों को समझने और झेलने में हम सक्षम हों और उन पर हम अपना स्वामित्व स्थापित करें ।
युवा वह होता है जिसमें परिस्थिति को झेलने की क्षमता होती है, परिस्थिति को ठुकराने की क्षमता होती है और अपने स्वामित्व को प्रतिष्ठापित करने की क्षमता होती है। प्रेक्षा ध्यान चिर यौवन का महत्त्वपूर्ण उपाय है । जो साधक प्रेक्षा ध्यान की अभ्यास-भूमिका में आते हैं, अपने आपको उसके प्रति समर्पित किए रहते हैं वे अनुभव कर सकते हैं कि उनका यौवन कितना स्थायी, कितना चिरजीवी और विशाल हो गया है और वे समाधि-मृत्यु के क्षण तक यही अनुभव करेंगे - 'मैं बूढ़ा नहीं हूं। मैं युवा हूं, मैं युवा हूं, मैं युवा हूं।'
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