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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
ये गुण परस्पर पूरक तो हैं ही, एकरूप भी हैं, अखण्ड स्रोत की भाँति। ये गुण तो मनुष्य को 'इक्कीस' यानी परिपूर्ण या अहिंसक बना देते हैं। कवि के शब्दों में वे गुण हैं:
लज्जावंत दयावंत प्रसंत प्रतीतवंत, परदोष को ढकैया, पर-उपकारी है। सौमदृष्टि, गुनग्राही गरिष्ट, सबकौं इष्ट, शिष्टपक्षी, मिष्टवादी, दीरघविचारी है। विशेषज्ञ, रसज्ञ, कृतज्ञ, तज्ञ, धरमज्ञ, न दीन न अभिमानी, मध्य-विवहारी है। सहजै विनीत पापक्रिया सों अतीत, ऐसो श्रावक पुनीत इकबीस गुनधारी है।।
नाटकसमयसार, अधि. 14, पद 54
- अभय कुटीर, सारनाथ
वाराणसी (उ०प्र)
परिग्रहः मूर्छाभाव कहते हैं सत्य बड़ा कड़वा अमृत है। जो इसे हिम्मत करके एक बार पी लेता है वह अमर हो जाता है और जो इसे गिरा देता है वह सदा पछताता है। हम एक ऐसा सत्य कहने जा रहे हैं जिसे जनमानस जानता है, मानता नहीं और यदि मानता है तो उस सत्य का अनुगमन नहीं करता। उस दिन एक सज्जन मेरे हस्ताक्षर लेने
आ गए। दूर से आए थे, कह रहे थे- आपके सुलझे और निर्भीक विचारों को 'अनेकान्त' में पढ़ता रहता हूँ। कारणवश दिल्ली आना हुआ। सोचा आपके दर्शन करता चलूँ। उनके आग्रहवश मैंने हस्ताक्षर दे दिए। वे पढ़कर बोले-आप जैन हैं, आपने अपने को जैन नहीं लिखा- केवल पद्मचन्द्र शास्त्री लिखा है। मैंने कहा-हाँ, मैं ऐसा ही लिखता हूँ। इससे आप ऐसा न समझें कि मैं इस समुदाय का नहीं। मैं तो इसी में पैदा हुआ हूँ, बड़ा भी इसी में हुआ हूँ और चाहता हूँ मरूँ भी यहीं। काश! लोग मुझे जैन होकर मरने दें! यानी- 'ये तन जावे तो जावे, मुझे जैनधर्म मिल जावे'। मैंने कहा- पर अभी मुझे जैन या जिन बनने के लिए क्या कुछ, और कितना करना पड़ेगा? यह मैं नहीं जानता। हाँ, इतना अवश्य है कि यदि मैं मूर्छा-परिग्रह को कृश कर सकू तो वह दिन दूर नहीं रहेगा जब मैं अपने को जैन लिख सकूँ।
साभार- मूल जैन संस्कृतिः अपरिग्रह