Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 13
________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 स्वार्थ और परमार्थ में एक जैसा होता है। उसके व्यवहार में परमार्थ भी होता है और परमार्थ में भी वह व्यवहार की भूमिका को हेय नहीं मानता। वह आत्मगवेषक होता है। समस्त ऋद्धि-सिद्धियाँ उसे अपने भीतर दीखने लगती हैं और वह अपनी आंतरिक लक्ष्मी के कारण लखपति होता है। उसका हृदय विराग रस से आपूरित सुखसागर होता है। मोह की अभेद्य चट्टान को भेदने की अकूत शक्ति उसमें आ जाती है। उसका प्रयास अपने में अपने को पाने का होता है। कविवर बनारसीदास ने मुग्धभाव से ऐसे सम्यक्त्वी श्रावक की, पारदर्शी श्रावक की, प्रकाशपुंज श्रावक की वंदना की है। हम यहाँ उनके नाटक समयसार से ऐसे तीनों कवित्त उद्धृत कर रहे हैं: भेद-विज्ञान जग्यौ जिन्हके घट, शीतल चित्त भयौ जिमि चन्दन। केलि करें शिव-मारग मैं, जगमांहि जिनेसुर के लघुनन्दन। सत्य स्वरूप सदा जिन्हकै, प्रगट्यौ अवदात मिथ्यात-निकन्दन। संत दशा तिन्हकी पहिचान, करै कर जोरि बनारसि वन्दन॥ स्वारथ के सांचे परमारथ के सांचे चित्त सांचे, सांचे बैन कहैं, सांचे जैनमती हैं। काहू के विरुद्ध नाहिं,परजाय-बुद्धि नाहिं, आतमगवेषी, न गृहस्थ हैं न जती हैं। सिद्धि-रिद्धि वृद्धि दीसै घट में प्रगट सदा,अन्तर की लच्छीसौं अजाची लच्छपती हैं। दास भगवंत के, उदास रहैं जगत सौं, सुखिया सदीव, ऐसे जीव समकिती हैं। जाके घट प्रगट विवेक गणधर को सौ, हिरदै हरख महामोह कौं हरतु है। सांचौ सुख मानै निज महिमा अडोल जानैं, आपुहि मैं आपनो सुभाव लै धरतु है। जैसे जल-कर्दम कतक-फल भिन्न करै, तैसें जीव-अजीव बिलान करतु है। आतम सकति साथै, ज्ञान को उदौ आराधै, सोई समकिती भवसागर तरतु है। -मंगलाचरण, सम्यग्दृष्टि की स्तुति सम्यक्त्वी श्रावक का भवसागर यों ही पार नहीं हो जाता- अभ्यास, साधना और सातत्य से ही मंजिल निकट आती है। पलभर की असावधानी जन्म-जन्मान्तर तक व्यथा में, पीड़ा में, दु:ख के महागर्त में ले जाती है। गमनसिद्ध पैर, वर्षों के अभ्यास के पश्चात् भी इस तरह लड़खड़ा या फिसल जाते हैं कि उठना कठिन हो जाता है। सम्यक्त्वी साधक अपने शरीर को देवालय मानकर उसे सक्षम, पवित्र, स्वच्छ रखता है। अनावश्यक भार लादकर काया को सताना वह पाप समझता है। तन को वह कारगृह नहीं समझता, उसे पंगु और क्षीण नहीं करता। बस इतना ही समझता है कि देह साधन है, पर साधन को भी साध्य में ऐसे एकरूप कर देता है जैसे दूध में शर्करा। वह अपने तन की उपेक्षा नहीं करता, उसे धरोहर समझता है। उसकी समस्त इन्द्रिय प्रवृत्तियाँ इतनी सहज, नम, कमनीय, सुन्दर बन जाती हैं कि उसका स्पर्शमात्र शीतलता प्रदान करता है। इसके लिए वह कतिपय गुणों की अपने में अवधारणा करता है। पारस्परिक व्यवहार की कसौटी ये ही गुण हैं, जिन पर वह खरा उतरने का प्रयास करता है। ये गुण महाकवि बनारसीदास के शब्दों में इक्कीस हैं जो मानव की व्यापक निष्ठा, उदात्त मनोभावना और सहज कर्मठता के परिचायक हैं।

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