Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 12
________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 'जिलाकर जीओ' में एक मानवीय स्पर्श है, रसानुभूति है, सहज पावन संस्पर्श है। श्रावक श्रमणत्व का उपासक अर्थात् श्रमिक होता है। न वह किसी का स्वामी बनना चाहता है, न किसी को दास बनाना। श्रमपूर्ण कर्मठता और कर्म को अकर्म बना डालने की साधना ही उसके जीवन का सौंदर्य है। जैन आचार में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का विधान है। ये मनुष्य को उत्तरोत्तर सेवा की पराकाष्ठा तक पहुँचाती हैं। पारंपरिक शब्दार्थ और आचार प्रणाली में तो आज इन प्रतिमाओं का उद्देश्य ही लुप्त हो गया है और यही कारण है कि इन प्रतिमाओं (सोपानों) के प्रतिपालक खान-पान के झमेले से या प्रपंच से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। आज का ग्यारहवीं प्रतिमाधारी भी सम्यकप में पहली प्रतिमा पर खड़ा नहीं हो पा रहा है। ऊँचा से ऊँचा देशसेवक या जनसेवक बनने की दृष्टि से इन प्रतिमाओं में अद्भुत आशय निहित है। अहिंसा, संयम और तप का त्रिवेणी-संगम इन प्रतिमाओं का प्राणतत्त्व है। सत्यं, शिवं और सुन्दरं का समवेत स्वरूप प्रतिमाधारक के रोम-रोम से व्यक्त हो, तभी वह श्रावक कहलाने का अधिकारी है। श्रावक धर्म की परिपूर्णता में श्राविका के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। दोनों मिलकर श्रावकत्व को परिपूर्णता प्रदान करते हैं। शुचिर्भूत श्राविका की कोख से ही धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थकर आदि महाप्राण पुरुषोत्तम अवतरित होते हैं। श्राविका ही श्रावक को परम अकाम में ले जाती है। मोक्ष या परमब्रह्म की साधना के लिए उसे तजकर अरण्यवास करने की, पलायन की भूमिका ने ही समाज और व्यक्ति को उत्तम सुख से वंचित कर दिया है। नितांत अक्रिय व्यक्तिमत्ता अध्यात्म के नाम पर पुजने लगी और श्रम की यथार्थ देवी श्राविका तिरस्कृत हो गयी। भेदमूलक दृष्टि के कारण ही आज श्रावक धर्म अपना महत्त्व एवं प्रभाव खो बैठा है। कहते हैं महावीर के संघ में श्रावकों से दोगुनी संख्या श्राविकाओं की थी और वे संघ का संचालन भी करती थीं। नारी को, श्राविका को, जगज्जननी को नरक की खान या वासना की पुतली कहकर मनुष्य ने अपने को समग्र ब्रह्म से तोड़ लिया है और समझ यह रहा है कि वह ब्रह्म में रमण कर रहा है! इस भ्रांति और मिथ्याचरण का परिणाम सामने है। व्रत साध्य नहीं, साधन मात्र हैं। व्रत तभी तक उपयोगी एवं आवश्यक हैं, जब तक मन में द्वैत है, तमस् का आचरण छाया है या विकारों का प्रभाव है। अन्ततः तो व्रतातीत होना ही मुक्ति है। व्रतातीत हुए बिना वास्तविक आनन्द, सहजानुभूति संभव नहीं। मुक्ति की कामना से मुक्त हुए बिना मुक्ति नहीं। चलना सीख जाने पर बालक माँ की अंगुली तज देता है, वैसे ही व्रत पीछे छूट जाने चाहिए। व्रतों में उत्तीर्ण होकर ही श्रावकत्व का कमल खिलता है। शरीर के अंगों का स्वस्थ स्थिति में जैसे भार नहीं लगता, पता ही नहीं चलता, वैसे ही व्रत भाररूप नहीं होने चाहिए। कामना, प्रतिष्ठा, यशस्विता या भय से व्रतों का पालन करना भार ही है। इससे प्रतिक्रिया पैदा होती है और यह मनुष्य को पतन में ढकेलती है। श्रावक का जीवन सहज होता है, वह केवल प्रसन्नता के लिए प्रवृत्त होता है। उसमें कोई शल्य नहीं रह जाती। उसका चित्त चन्दन की तरह शीतल हो जाता है। वह

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